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उपदेश नौ
 

चीगोंग और शारीरिक व्यायाम

साधारण स्तर पर, लोग सहज ही चीगोंग को शारीरिक व्यायामों से संबंधित मानते हैं। नि:संदेह, एक निम्न स्तर पर, जहाँ तक एक स्वस्थ शरीर प्राप्त करने का प्रश्न है चीगोंग और शारीरिक व्यायाम समान हैं। किन्तु इसकी विशिष्ट व्यायाम क्रियाएँ और अपनाई गई पध्दतियाँ शारीरिक व्यायामों से बहुत भिन्न हैं। शारीरिक व्यायामों द्वारा एक स्वस्थ शरीर प्राप्त करने के लिए, व्यक्ति को व्यायाम की मात्रा को बढ़ाते रहने और प्रशिक्षण को तीव्र करने की आवश्यकता होती है। चीगोंग अभ्यास, हालांकि, ठीक विपरीत है, क्योंकि इसमें गति की आवश्यकता नहीं होती। यदि कोई गति क्रिया होती है, यह सौम्य, धीमी, और घुमावदार होती है। यह बिना गति के और शान्त भी होती है- यह शारीरिक व्यायामों से स्वरूप में बहुत भिन्न होती है। एक उच्च स्तर के दृष्टिकोण से, चीगोंग केवल आरोग्य और स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है, क्योंकि इसमें बहुत-कुछ उच्च स्तरों और गहन आधार की वस्तुओं का समावेश होता है। चीगोंग साधारण लोगों के स्तर पर कुछ वस्तुओं का ऊपरी ज्ञान भर नहीं है। यह दिव्य है और इसकी विभिन्न स्तरों पर विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। यह ऐसा कुछ है जो साधारण लोगों से कहीं आगे है।

जहाँ तक व्यायामों के प्रकार का प्रश्न है, उनमें भी बहुत भिन्नताएँ हैं। इस आधुनिक स्तर की प्रतियोगिता के लिए शरीर को तैयार करने के लिए और इसकी आवश्यकताओं पर पहुँचने के लिए, एक खिलाड़ी, विशेषकर आज के खिलाड़ी को व्यायाम की मात्रा को बढ़ाने की आवश्यकता होती है। इसलिए, व्यक्ति को अपना शरीर हमेशा उत्कृष्ट अवस्था में रखना होता है। इस ध्येय को प्राप्त करने के लिए, व्यक्ति को व्यायाम की मात्रा बढ़ानी होती है जिससे शरीर के अन्दर रक्त का प्रवाह उचित प्रकार से हो सके, उपापचय में वृध्दि हो सके, और शरीर हमेशा एक उन्नत अवस्था में रह सके। उपापचय में वृध्दि की आवश्यकता क्यों होती है? यह इसलिए क्योंकि एक खिलाड़ी का शरीर प्रतियोगिता के लिए हमेशा उन्नत और बेहतर अवस्था में होना चाहिए। मानव शरीर अनेक कोशिकाओं से निर्मित होता है। इन सब की निम्न प्रकार की प्रक्रिया होती है : नई विभाजित हुई कोशिका का जीवन बहुत क्रियाशील होता है, और कोशिका एक विकास की अवस्था दर्शाती है। जब यह उच्चतम बिंदु तक विकसित हो चुकी होती है, यह और अधिक विकसित नहीं हो सकती और इसमें केवल अपने निम्नतम बिंदु की ओर गिराव आ सकता है। एक नई कोशिका तब इसे प्रतिस्थापित कर देगी। उदाहरण के लिए एक कोशिका सुबह 6 बजे विभाजित होती है और विकास की अवस्था दर्शाती है। जब यह 8 बजे, 9 बजे, या 10 बजे तक पहुँचती है, ये सब बहुत अच्व्छे समय हैं। जब तक दोपहर आती है, यह और अधिक विकास नहीं कर सकती, और केवल नीचे की ओर जा सकती है। इस बिंदु पर, कोशिका का आधा शेष जीवन अब भी बचा है, किन्तु यह शेष आधा एक खिलाड़ी की प्रतियोगिता की अवस्था के लिए अनुपयुक्त है।

तब, क्या किया जाना चाहिए? व्यक्ति को प्रशिक्षण और तीव्र कर देना चाहिए और रक्त के प्रवाह को बढ़ाना चाहिए, और तब नई विभाजित कोशिकाएँ पुरानी को प्रतिस्थापित कर सकती हैं। यह इस मार्ग को अपनाता है। कहने का अर्थ है, कोशिका का पूरा जीवन पूर्ण होने से पहले या जब इसका केवल आधा जीवन ही हुआ होता है, इसे प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। शरीर इस प्रकार हमेशा प्रबल बना रहेगा और विकास की अवस्था में रहेगा। किन्तु कोशिकाएँ इस प्रकार अनगिनत समय तक विभाजित नहीं हो सकतीं, क्योंकि कोशिका विभाजन की संख्या सीमित होती है। उदाहरण के लिए मानिये कि एक कोशिका अपने जीवन में एक सौ बार विभाजित हो सकती है। वास्तव में, यह दस लाख से भी अधिक बार विभाजित हो सकती है। और मानिये कि जब एक कोशिका एक सामान्य व्यक्ति के लिए सौ बार विभाजित होती है, वह सौ वर्ष तक जी सकता है। किन्तु अब इस कोशिका ने अपना केवल आधा जीवन जिया है, इसलिए वह केवल पचास वर्ष तक जी सकता है। किन्तु हमने खिलाड़ियों के लिए कोई बड़ी समस्याएँ होती नहीं देखी हैं, क्योंकि खिलाड़ियों को आजकल तीस से पहले की उम्र में अवकाश ले लेना पड़ता है। विशेषकर, अब प्रतियोगिता स्तर बहुत ऊँचा है, और अवकाश प्राप्त खिलाड़ियों की संख्या भी बहुत अधिक है। एक खिलाड़ी इस प्रकार एक सामान्य जीवन पुन: आरम्भ कर सकता है और वह अधिक प्रभावित प्रतीत नहीं होगा। सैध्दांतिक रूप से, यह अवश्य ही इस प्रकार है। शारीरिक व्यायाम व्यक्ति को एक स्वस्थ शरीर बनाए रखने में मदद कर सकते हैं, किन्तु ये उसके जीवन को छोटा कर देंगे। देखने पर, एक खिलाड़ी अपनी किशोरावस्था में बीस वर्ष की उम्र का दिखाई पड़ता है, जबकि बीस वर्ष के आसपास का व्यक्ति तीस का दिखाई पड़ता है। एक खिलाड़ी जल्दी उम्र पकड़ता हुआ प्रतीत होता है। यदि इसमें कोई लाभ है, तो एक विपरीत दृष्टिकोण से एक हानि भी होगी। वास्तव में, यह इस मार्ग को अपनाता है।

चीगोंग अभ्यास शारीरिक व्यायामों से ठीक विपरीत होता है। इसमें थका देने वाली गति क्रियाओं की आवश्यकता नहीं होती। यदि कोई गति होती है, यह सौम्य, धीमी, और घुमावदार होती है। यह इतनी सौम्य और धीमी होती है कि यह बिना गति के या शान्त अवस्था में भी होती है। आप जानते हैं कि ध्यान में बैठने की साधना पध्दति में शान्त अवस्था की आवश्यकता होती है। सभी कुछ, जैसे हृदय का धड़कना और रक्त प्रवाह, धीमा पड़ जाएगा। भारत में, ऐसे अनेक योग आचार्य हैं जो कई दिनों तक पानी के अन्दर बैठ सकते हैं या जमीन के अन्दर दबे रह सकते हैं। वे स्वयं को पूरी तरह शान्त कर सकते हैं और अपने हृदय की धड़कन को भी नियन्त्रित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि व्यक्ति की कोशिकाएँ दिन में एक बार विभाजित होती हैं। एक अभ्यासी अपने शरीर की कोशिकाओं को दो दिन में एक बार, एक सप्ताह में एक बार, आधे महीने में एक बार, या उससे भी अधिक समय में विभाजित कर सकता है। उसने तब अपने जीवन को पहले ही बढ़ा लिया है। इसका संदर्भ केवल उन अभ्यासों से है जो केवल मन की साधना करते हैं और शरीर की नहीं, क्योंकि वे भी इसे प्राप्त कर सकते हैं और अपने जीवन को बढ़ा सकते हैं। कोई सोच सकता है : "क्या व्यक्ति का जीवनकाल पूर्व-निर्धारित नहीं होता? बिना शरीर की साधना किए हुए कोई कैसे अधिक जी सकता है?" सही है। यदि किसी अभ्यासी का स्तर तीन लोकों से आगे पहुँचता है, उसके जीवन को बढ़ाया जा सकता है, किन्तु सतह पर वह बहुत वृध्द दिखाई पड़ेगा।

एक सच्चा अभ्यास जो शरीर की साधना करता है व्यक्ति के शरीर की कोशिकाओं में एकत्रित उच्च शक्ति पदार्थ को निरन्तर जमा करेगा और निरन्तर इसके घनत्व को बढ़ाएगा जिससे वे साधारण व्यक्ति की कोशिकाएँ धीरे-धीरे क्षीण हो सकें और प्रतिस्थापित हो सकें। इस समय एक गुणात्मक बदलाव आएगा, और यह व्यक्ति सदा के लिए युवा बना रहेगा। नि:संदेह, साधना का क्रम बहुत धीमा और निरन्तर होता है, और व्यक्ति को बहुत त्याग करने की आवश्यकता होती है। व्यक्ति के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से स्वयं को दृढ़ करना बहुत सरल नहीं होता। क्या व्यक्ति दूसरों के साथ नैतिकगुण मतभेद में शान्त रह सकता है? क्या वह प्रभावमुक्त रहेगा जब स्वयं अपने, निजी लाभ दाव पर लगे हों? ऐसा करना बहुत कठिन है, इसलिए ऐसा नहीं है कि जब तक व्यक्ति इस ध्येय को प्राप्त करना चाहता है, वह इसे प्राप्त कर सकता है। केवल जब व्यक्ति के नैतिकगुण और सद्गुण में सुधार हो चुका होता है केवल तभी वह इस ध्येय को प्राप्त कर सकता है।

कई लोग चीगोंग को साधारण शारीरिक व्यायाम मानते रहे हैं, जबकि वास्तव में अन्तर बहुत अधिक है; वे बिल्कुल भी समान वस्तुएँ नहीं हैं। केवल जब निम्नतम स्तर पर ची का अभ्यास किया जाता है, जो एक स्वस्थ शरीर पाने के लिए आरोग्य और स्वास्थ्य के लिए है, तब यह निम्नतम स्तर का ध्येय शारीरिक व्यायामों के समान है। एक उच्च स्तर पर, हालांकि, वे पूरी तरह भिन्न वस्तुएँ हैं। चीगोंग में शरीर के शुध्दिकरण का भी अपना उद्देश्य है और, इसके अतिरिक्त, अभ्यासियों के लिए दिव्य नियमों का पालन करने की आवश्यकता होती है न कि साधारण लोगों के नियमों का। किन्तु शारीरिक व्यायाम केवल साधारण लोगों के लिए हैं।

मनोभाव

जहाँ तक मनोभाव का प्रश्न है, इसका संबंध मन की गतिविधियों से है। साधकों के समुदाय में, मस्तिष्क में मन की गतिविधियों को किस प्रकार देखा जाता है? यह विभिन्न प्रकार के मानव विचारों (मनोभाव) को किस प्रकार देखता है? और वे किस प्रकार प्रकट होते हैं? आधुनिक चिकित्सा आज भी मानव मस्तिष्क के अपने शोध में अनेक प्रश्नों को हल नहीं कर सकती, क्योंकि यह उतना सरल नहीं है जितना हमारे शरीरों की सतह का अध्ययन करना। गहरे स्तरों पर, विभिन्न आयाम विभिन्न स्वरूप धारण कर लेते हैं। किन्तु यह उस प्रकार भी नहीं है जैसा कुछ चीगोंग गुरुओं ने कहा है। कुछ चीगोंग गुरु स्वयं भी नहीं जानते कि क्या हो रहा है, और न ही वे इसे स्पष्ट रूप से समझा सकते हैं। वे सोचते हैं कि एक बार वे अपने मन का प्रयोग करते हैं और एक विचार उत्पन्न करते हैं, वे कुछ कर सकेंगे। वे दावा करते हैं कि वे वस्तुएँ उनके विचारों के द्वारा या उनके मनोभाव के द्वारा की गई हैं। वास्तव में, वे वस्तुएँ उनके मनोभाव द्वारा बिल्कुल नहीं की जातीं।

सर्वप्रथम, व्यक्ति के विचारों के मूल के बारे में बात करते हैं। प्राचीन चीन में, एक वाक्य था "हृदय द्वारा सोचना।" इसे हृदय द्वारा सोचना क्यों कहा जाता था? प्राचीन चीनी विज्ञान बहुत विकसित था क्योंकि इसकी शोध सीधे मानव शरीर, जीवन, और ब्रह्माण्ड जैसी वस्तुओं पर केन्द्रित होती थी। कुछ लोग वास्तव में महसूस करते हैं कि यह उनका हृदय है जो सोचता है, जबकि दूसरे महसूस करते हैं कि यह उनका मस्तिष्क है जो सोचता है। ऐसी परिस्थिति क्यों है? जब कुछ लोग हृदय द्वारा सोचने की बात करते हैं यह बहुत तर्कसंगत है। यह इसलिए क्योंकि हमने पाया है कि एक साधारण व्यक्ति की मूल आत्मा बहुत सूक्ष्म होती है, और मानव मस्तिष्क के वास्तविक संदेश स्वयं मानव मस्तिष्क की क्रिया नहीं हैं- वे मस्तिष्क द्वारा उत्पन्न नहीं किए जाते, बल्कि व्यक्ति की मूल आत्मा द्वारा किए जाते हैं। व्यक्ति की मूल आत्मा केवल नीवान महल में वास नहीं करती। ताओ विचारधारा में नीवान महल पिनियल ग्रन्थि है जिसे आधुनिक चिकित्सा ने समझा है। यदि व्यक्ति की मूल आत्मा नीवान महल में होती है, वह वास्तव में महसूस करेगा कि मस्तिष्क किसी के बारे में सोच रहा है या संदेश भेज रहा है। यदि यह व्यक्ति के हृदय में होती है, वह वास्तव में महसूस करेगा कि हृदय किसी वस्तु के बारे में सोच रहा है।

मानव शरीर एक लघु ब्रह्माण्ड होता है। एक अभ्यासी के शरीर में अनेक जीवन सत्ताएँ स्थान बदलने में समर्थ हो सकती हैं। जब मूल आत्मा अपना स्थान बदलती है, यदि यह व्यक्ति के उदर में जाती है, वह महसूस करेगा कि उदर वास्तव में किसी वस्तु के बारे में सोच रहा है। यदि मूल आत्मा व्यक्ति के पैर या टखने में जाती है, वह वास्तव में महसूस करेगा कि पैर या टखना किसी वस्तु के बारे में सोच रहा है। यह निश्चित ही इस प्रकार है, और बहुत अविश्वसनीय जान पड़ता है। जब आपका साधना स्तर बहुत ऊँचा नहीं होता, आप पाएँगे कि यह परिस्थिति होती है। यदि मानव शरीर में मूल आत्मा और स्वभाव, प्रकृति, और व्यंक्तित्व जैसी वस्तुएँ नहीं होतीं, यह केवल एक मांस का टुकड़ा होता न कि अपनी पहचान के साथ एक पूर्ण व्यक्ति। तब मानव मस्तिष्क के क्या कार्य होते हैं? जैसा मैं इसे देखता हूँ, इस भौतिक आयाम के स्वरूप में, मानव मस्तिष्क केवल एक क्रियाशील कारखाना है। वास्तविक संदेश मूल आत्मा द्वारा भेजा जाता है। हालांकि, जो भेजा जाता है भाषा नहीं है, किन्तु ब्रह्माण्ड का एक संदेश है जो एक विशिष्ट अर्थ को दर्शाता है। इस प्रकार की आज्ञा को प्राप्त करके, हमारा मस्तिष्क इसे क्रिया द्वारा आज की भाषा या हाव-भाव के दूसरे किसी रूप में ला देगा; हम इसे हाथ की मुद्राओं, ऑंखों के मिलने, और पूर्ण गतिविधि द्वारा प्रदर्शित करते हैं। मस्तिष्क का केवल यही प्रभाव है। वास्तविक आज्ञाएँ और विचार व्यक्ति की मूल आत्मा से आते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि वे मस्तिष्क की सीधी और स्वतन्त्र क्रियाएँ हैं। वास्तव में, मूल आत्मा कई बार हृदय में होती है, इसलिए कुछ लोग वास्तव में महसूस कर सकते हैं कि उनका हृदय सोच रहा है।

वर्तमान में, वे लोग जो मानव शरीर पर शोध करते हैं, विश्वास करते हैं कि जो मानव मस्तिष्क भेजता है वह इलेक्ट्रिक तरंग की तरह होता है। हम पहले ही नहीं बताएँगे कि वास्तव में क्या प्रेषित किया जाता है, किन्तु उन्होंने स्वीकार किया है कि इसका एक प्रकार का पदार्थ का अस्तित्व है। इस प्रकार, यह अन्धविश्वास नहीं है। इस पदार्थ का क्या प्रभाव होता है? कुछ चीगोंग गुरु दावा करते हैं : "मैं अपने मनोभाव का प्रयोग करके दूर-स्थानांतरण कर सकता हूँ, आपका दिव्य नेत्र खोल सकता हूँ, आपका रोग ठीक कर सकता हूँ, आदि।" वास्तव में, जहाँ तक कुछ चीगोंग गुरुओं का प्रश्न है, वे जानते भी नहीं हैं, और न ही वे स्पष्ट हैं कि उन्हें क्या दिव्य सिध्दियाँ अर्जित हैं। वे केवल यह जानते हैं कि वे जो चाहें कर सकते हैं, जब तक वे इसके बारे में सोचते हैं। वास्तव में, यह उनका मनोभाव है जो कार्य कर रहा है : दिव्य सिध्दियाँ मस्तिष्क के मनोभाव द्वारा निर्देशित होती हैं, और वे विशिष्ट कार्य मनोभाव की आज्ञा से पूर्ण करती हैं। किन्तु मनोभाव स्वयं कुछ नहीं कर सकता। जब एक अभ्यासी कुछ विशिष्ट कार्य करता है, ये उसकी दिव्य सिध्दियाँ हैं जो कार्य करती हैं।

दिव्य सिध्दियाँ मानव शरीर की सक्रिय योग्यताएँ हैं। मानव समुदाय के विकास के साथ-साथ, मानव मन अधिकाधिक जटिल बन गया है, जिसमें "यथार्थ" को अधिक महत्व दिया जाता है और तथाकथित आधुनिक साधनों पर निर्भरता बढ़ गई है। परिणामस्वरूप, मानव जन्मजात योग्यताएँ निरन्तर क्षीण हो गई हैं। ताओ विचारधारा मूल, सच्ची प्रकृति की ओर लौटना सिखाती है। साधना अभ्यास के क्रम में, आप को सत्य की खोज करनी चाहिए, और अन्त में अपनी मूल, सच्ची प्रकृति और अपने आत्मस्वभाव की ओर लौटना चाहिए। केवल तभी आप अपनी इन जन्मजात योग्यताओं को प्रकट कर सकेंगे। आजकल, हम उन्हें "अलौकिक योग्यताएँ" कहते हैं जबकि वे सब वास्तव में मानवीय जन्मजात योग्यताएँ हैं। मानव समुदाय विकास करता हुआ प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में इसका गिराव हो रहा है और यह ब्रह्माण्ड की प्रकृति से और दूर जा रहा है। दूसरे दिन मैंने बताया था कि जांग गुओलाओ ने एक गधे पर उल्टे बैठ कर सवारी की, किन्तु लोग नहीं समझ सके कि इसका क्या अर्थ था। उन्होंने जाना कि आगे की ओर जाना पीछे जाना है, और यह कि मनुष्य जाति ब्रह्माण्ड प्रकृति से और दूर जा रही है। ब्रह्माण्ड के विकास के क्रम में और विशेष रूप से वर्तमान उपभोग अर्थव्यवस्था की बड़ी लहर से जुड़ने के बाद, कई लोग नैतिक रूप से बहुत भ्रष्ट हो गये हैं, और वे सत्य-करुणा-सहनशीलता जो ब्रह्माण्ड की प्रकृति है, से और दूर जा रहे हैं। जो साधारण लोगों के बहाव में बहे जा रहे हैं वे मानवजाति के नैतिक पतन की अवस्था को समझ भी नहीं सकते। इसलिए कुछ लोग सोचते हैं कि सब ठीक है। केवल वे लोग जिनका नैतिकगुण साधना द्वारा बढ़ा दिया गया है, पीछे मुड़कर देखने पर जानेंगे, कि मानवीय नैतिक आदर्श कितनी बुरी अवस्था तक बिगड़ चुके हैं।

कुछ चीगोंग गुरुओं ने दावा किया है : "मैं आपकी दिव्य सिध्दियों को विकसित कर सकता हूँ।" वे कौन सी दिव्य सिध्दियाँ विकसित कर सकते हैं? बिना शक्ति के, व्यक्ति की दिव्य सिध्दियाँ कार्य नहीं करेंगी। इसके बिना आप उन्हें कैसे विकसित कर सकते हैं? जब व्यक्ति की दिव्य सिध्दियाँ उसकी अपनी शक्ति द्वारा निर्मित और क्रियाशील नहीं होती हैं, आप उन्हें कैसे विकसित कर सकते हैं? यह बिल्कुल असंभव है। जो उन्होंने दिव्य सिध्दियों को विकसित करने की बात की है, वह और कुछ नहीं केवल आपकी पहले से बनी दिव्य सिध्दियों को आपके मस्तिष्क से जोड़ना भर है। वे आपके मस्तिष्क के मनोभाव की आज्ञा पर कार्य करेंगी। दिव्य सिध्दियों को विकसित करने के नाम पर वे यह करते हैं। वास्तव में, उन्होंने आपकी कोई भी दिव्य सिध्दि विकसित नहीं की है, बल्कि केवल यह छोटा सा काम किया है।

एक अभ्यासी के लिए, उसका मनोभाव कार्य करने के लिए दिव्य सिध्दियों को निर्देशित करता है। एक साधारण व्यक्ति के लिए, व्यक्ति का मनोभाव चार हाथ-पैरों और संवेदनशील अंगों को कार्य के लिए निर्देशित करता है, ठीक जैसे एक कारखाने में उत्पादन कार्यालय होता है : निदेशक का कार्यालय विशिष्ट कार्यों के सभी विभागों के पास कर्तव्य के लिए आज्ञा जारी करता है। यह सैन्य मुख्यालय जैसा भी है : सेनापति का कार्यालय आज्ञा देता है और पूरी सेना को कोई उद्देश्य पूर्ण करने के लिए निर्देशित करता है। जब मैं व्याख्यान देने के लिए नगर से बाहर गया था, मैं इस विषय पर स्थानीय चीगोंग संस्थाओं के प्रशासकों से अक्सर चर्चा करता था। वे सब बहुत चकित होते थे : "हम पढ़ते आ रहे हैं कि मानव मन में कितनी सामर्थ्य शक्ति और चेतना है।" वास्तव में, यह इस प्रकार नहीं है। वे आरम्भ से ही सही दिशा में नहीं हैं। मैंने कहा है कि मानव शरीर के विज्ञान को समझने के लिए व्यक्ति को अपने विचारों में क्रान्ति लानी होगी। उन दिव्य वस्तुओं को समझने के लिए, व्यक्ति साधारण लोगों के निष्कर्षवादी तरीकों और वस्तुओं को समझने के उनके तरीकों को प्रयोग नहीं कर सकता।

मनोभाव की बात की जाए तो इसके अनेक स्वरूप होते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग घुंधली स्मृति, अवचेतन मन, प्रेरणा, स्वप्न, इत्यादि के बारे में बात करते हैं। स्वप्न की बात की जाए तो, कोई चीगोंग गुरु उनके बारे में समझाना नहीं चाहता। क्योंकि जन्म के समय आप ब्रह्माण्ड के अनेक आयामों में एक साथ पैदा हुए थे, ये आपके दूसरे स्वरूप आपको एक पूर्ण, अखण्ड प्राणी बनाते हैं और एक दूसरे के साथ मानसिक रूप से जुड़े होते हैं। इसके अतिरिक्त, शरीर में आपके पास अपनी मुख्य आत्मा, सह आत्मा, और दूसरे विभिन्न प्राणियों के प्रतिबिम्ब होते हैं। दूसरे आयामों में अस्तित्व के स्वरूप होने के कारण प्रत्येक कोशिका और सभी आन्तरिक अंग आपके प्रतिबिम्ब के संदेश को दर्शाते हैं। इस प्रकार, यह अत्यन्त जटिल है। स्वप्न में, परिस्थितियाँ किसी पल इस प्रकार होती हैं तो दूसरे पल किसी और प्रकार। तब भी, वे कहाँ से आती हैं? चिकित्सा विज्ञान में यह कहा जाता है कि यह इसलिए है क्योंकि व्यक्ति का तंत्रिका तंत्र बदलाव अनुभव करता है। यह एक प्रतिक्रिया है जो भौतिक रूप में प्रकट होती है। वास्तव में, यह दूसरे आयामों से संदेश प्राप्त करने के कारण है। इसलिए, जब आप स्वप्न में होते हैं आपका मन चकराया हुआ महसूस होता है। इसका आप से कोई लेना-देना नहीं है, और आपको इस पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। एक प्रकार का स्वप्न है जो आप पर सीधा प्रभाव डालता है। हमें इस प्रकार के स्वप्न को "स्वप्न" नहीं कहना चाहिए। आपकी मुख्य चेतना या मुख्य आत्मा ने स्वप्न में यह देखा होगा कि कोई पारिवारिक सदस्य आपके पास आया है, यह कि आपने वास्तव में कुछ अनुभव किया है, या यह कि आपने कुछ देखा या किया होगा। उस परिस्थिति में, यह आपकी मुख्य आत्मा है जिसने वास्तव में दूसरे आयाम में कुछ किया या देखा है, क्योंकि आपकी चेतना स्पष्ट और वास्तविक थी। उन वस्तुओं का वास्तव में अस्तित्व होता है, केवल यह कि वे दूसरे भौतिक आयाम में होती हैं और उन्हें दूसरे काल-अवकाश में किया जाता है। आप इसे स्वप्न कैसे कह सकते हैं? यह वह नहीं है। आपका भौतिक शरीर यहाँ वास्तव में सो रहा है, इसलिए आप इसे केवल एक स्वप्न कह सकते हैं। केवल इस प्रकार के स्वप्नों का आपसे सीधा कोई संबंध होता है।

मानवीय प्रेरणा, अवचेतन मन, धुंधली स्मृति, आदि की बात की जाए तो, मैं कहूँगा कि उन शब्दों को वैज्ञानिकों ने नहीं बनाया है। ये शब्द लेखकों द्वारा गढ़े गए हैं और साधारण लोगों की मान्यताओं पर आधारित हैं- वे अवैज्ञानिक हैं। "धुंधली स्मृति" क्या होती है जिसके बारे में लोग बात करते हैं? इसे स्पष्टता से समझाना कठिन है और यह बहुत अनेकार्थी है, क्योंकि अनेक मानव संदेश बहुत जटिल होते हैं, वे उलझी हुई स्मृतियों के रेशों की तरह प्रतीत होते हैं। जहाँ तक अवचेतन मन का संदर्भ है जो लोग बात करते हैं, हम इसे सरलता से समझा सकते हैं। अवचेतन मन की परिभाषा के अनुसार, साधारणत: इसका अर्थ है कि कोई व्यक्ति अंजाने में कोई कार्य करता है। और लोग अक्सर कहेंगे कि इस व्यक्ति ने यह कार्य अवचेतन मन से किया, न कि जान बूझकर। यह अवचेतन मन ठीक हमारी सह चेतना जैसा ही है जिसका हमने उल्लेख किया है। जब व्यक्ति की मुख्य चेतना विश्राम करती है और मस्तिष्क को नियंत्रित नहीं करती, तब व्यक्ति की एक स्पष्ट चेतना नहीं होती, जैसे उसे निद्रा आ गई हो। किसी स्वप्न में या किसी अवचेतन अवस्था में, व्यक्ति सरलता से सह चेतना या सह आत्मा द्वारा नियंत्रित हो जाएगा। उस समय, सह चेतना कुछ कार्य कर सकेगी, कहने का अर्थ है कि आप एक स्पष्ट मन के बिना कार्य करेंगे। हालांकि ये कार्य अक्सर बहुत अच्छे प्रकार से किए गए होते हैं, क्योंकि सह चेतना दूसरे आयाम से पदार्थ की प्रकृति को देख सकती है और हमारे साधारण समुदाय द्वारा भ्रमित नहीं होती। इसलिए, जब व्यक्ति को पता चलता है कि उसने क्या किया है, वह पीछे की ओर देखेगा : "मैं इसे इतना खराब कैसे कर सकता था? मैं इसे एक स्पष्ट मन के साथ इस प्रकार नहीं करता।" आप अभी कह सकते हैं कि यह अच्छा नहीं है, किन्तु जब आप दस दिन, या आधा महीने के बाद पीछे देखते हैं, आप कहेंगे : "वाह! इसे कितना अच्छा किया गया था! मैंने इसे तब कैसे किया?" ये वस्तुएँ अक्सर होती हैं। क्योंकि सह चेतना उस पल होने वाले प्रभाव की परवाह नहीं करती, किन्तु, फिर भी, इसका भविष्य में अच्छा प्रभाव होता है। ऐसी भी वस्तुएँ होती हैं जिनका कोई भविष्य प्रभाव नहीं होता और केवल उसी पल प्रभाव होता है। जब सह चेतना इन वस्तुओं को करती है, हो सकता है यह ठीक तभी एक अच्छा कार्य कर दे।

इसमें एक और प्रकार होता है : जो है कि आपमें से जिनका जन्मजात गुण अच्छा है उन्हें सरलता से उच्च प्राणियों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है और कार्य करवाया जा सकता है। निश्चित ही, यह एक और विषय है, और इसकी यहाँ व्याख्या नहीं की जाएगी। हम मुख्यत: विचारों की चर्चा कर रहे हैं जो स्वयं हम से आते हैं।

जहाँ तक "प्रेरणा" की बात है, यह भी लेखकों द्वारा गढ़ा गया एक शब्द है। यह साधारणत: माना जाता है कि प्रेरणा, व्यक्ति के जीवनभर जमा किए ज्ञान के रूप में एक बिजली के कौंधने की तरह फट कर बाहर आ जाती है। मैं कहूँगा कि भौतिकवाद1 के दृष्टिकोण से, व्यक्ति जीवन में जितना अधिक ज्ञान अर्जित करता है, जितना अधिक वह मन का प्रयोग करता है, यह उतना ही पैना हो जाता है। उस समय जब व्यक्ति इसका प्रयोग करता है, यह निरंतर बाहर आना चाहिए, और प्रेरणा जैसा कोई विषय नहीं होना चाहिए। सभी तथाकथित प्रेरणा, जब यह आती है, यह इस अवस्था में नहीं होती। अक्सर जब व्यक्ति मस्तिष्क का प्रयोग करता है, वह इसका तब तक प्रयोग करता रहता है जब तक उसे यह न लगे उसका ज्ञान समाप्त हो गया है और जैसे वह अपनी समझ के अन्त तक पहुँच गया है। उसके लिए किसी लेख को लिखते रहना संभव नहीं हो पाएगा, संगीत के किसी भाग को संयोजित करते हुए वह विचारहीन हो जाएगा, या किसी वैज्ञानिक शोध कार्य को पूरा नहीं कर सकेगा। इस समय पर, व्यक्ति अक्सर थका हुआ होता है, उसका मस्तिष्क निढाल होता है और सिगरेट के टुकड़े जमीन पर फैले होते हैं। वह फंस जाता है, उसे सिरदर्द होता है, और तब भी कोई विचार नहीं आता। अन्त में, किन अवस्थाओं में प्रेरणा आती है? यदि वह थका होता है, वह सोचेगा : "इसे भूल जाओ। मैं कुछ अवकाश लूँगा।" क्योंकि जितना अधिक उसकी मुख्य चेतना उसके मस्तिष्क को नियंत्रित करती है उतना ही कम दूसरी सत्ताएँ प्रवेश कर सकती हैं, इस अवकाश और उसके मन के विश्राम के साथ, अचानक ही अंजाने में उसे उसके मस्तिष्क से कुछ याद आ सकता है। अधिकतर प्रेरणाएँ इस प्रकार आती हैं।

प्रेरणा इस समय क्यों आती है? क्योंकि जब व्यक्ति का मन मुख्य चेतना द्वारा नियंत्रित किया जाता है, वह मस्तिष्क का जितना अधिक प्रयोग करता है, मुख्य चेतना का नियंत्रण उतना ही अधिक होता है, और उतनी ही कम सह चेतना आ सकती है। जब वह सोच रहा होता है, कोई सिरदर्द होता है, और पीड़ा भोगता है, तब सह चेतना भी पीड़ा भोगती है और बहुत दु:खदायी सिरदर्द सहन करती है। उसी के शरीर का एक भाग होने के कारण और एक साथ एक ही माँ के गर्भ से पैदा होने के कारण, यह भी उसके शरीर के एक भाग को नियंत्रित करती है। जब व्यक्ति की मुख्य चेतना विश्राम करती है, सह चेतना मस्तिष्क में वह दर्शा देती है जो वह जानती है। क्योंकि यह दूसरे आयाम में पदार्थ की प्रकृति को देख सकती है, इस प्रकार कोई कार्य किया जा सकता है, एक लेख लिखा जा सकता है, या संगीत संयोजित किया जा सकता है।

कुछ लोग कहेंगे : "उस अवस्था में, हमें सह चेतना का उपयोग करना चाहिए।" यह उसी प्रकार है जैसे किसी ने अभी पर्ची में पूछा है : "हम सह चेतना से संपर्क कैसे कर सकते हैं?" आप इससे संपर्क नहीं कर सकते क्योंकि आपका अभ्यास अभी आरम्भ हुआ है और आपके पास कोई योग्यताएँ नहीं हैं। अच्छा होगा कि आप कोई संपर्क न करें, क्योंकि आपकी इच्छा अवश्य ही मोहभाव बन जाएगी। कुछ लोग सोच सकते हैं : "क्या हम सह चेतना का उपयोग हमारे लिए और धन अर्जित करने के लिए और मानव समुदाय के विकास को तेज करने के लिए कर सकते हैं?" नहीं! क्यों नहीं? यह इसलिए क्योंकि जो आपकी सह चेतना जानती है वह भी बहुत सीमित है। आयामों की जटिलताओं और इतने अधिक स्तरों के साथ, ब्रह्माण्ड की संरचना बहुत जटिल है। सह चेतना केवल यह जान सकती है कि इसके आयाम में क्या है और यह अपने आयाम से आगे कुछ नहीं जानेगी। इसके अतिरिक्त, अनेक विभिन्न लम्बवत स्तर और आयाम होते हैं। मनुष्य जाति का विकास एक बहुत उच्च स्तर पर केवल उच्च प्राणियों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है, और यह विकास के नियम के अनुसार आगे प्रगति करती है।

हमारा साधारण मानव समुदाय इतिहास के विकास के नियम के अनुसार आगे प्रगति करता है। आप इसके एक विशिष्ट रूप से विकसित होने और किसी विशेष उद्देश्य को प्राप्त करने की इच्छा रख सकते हैं, किन्तु वे उच्च प्राणी इसे इस प्रकार नहीं मानते। क्या प्राचीन समय में लोगों ने आज के हवाई जहाज, रेल गाड़ी, और साइकिल कि बारे में नहीं सोचा होगा? मैं कहूँगा कि यह असंभव है कि उन्होंने नहीं सोचा होगा। क्योंकि इतिहास का उस अवस्था तक विकास नहीं हुआ था, वे उनका आविष्कार नहीं कर सके। सतह पर, या पारम्परिक सिध्दान्तों और वर्तमान मानवीय ज्ञान के दृष्टिकोण से, यह इसलिए क्योंकि मानव विज्ञान उस समय इस स्तर तक नहीं पहुँचा था और इसलिए वे उनका आविष्कार नहीं कर सके। वास्तव में, मानव विज्ञान को कैसे प्रगति करनी चाहिए यह भी इतिहास की व्यवस्था के अनुसार निर्धारित होता है। यदि आप मानवीय रूप से कोई विशेष उद्देश्य पूर्ण करना चाहते हैं, इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। नि:संदेह, ऐसे लोग हैं जिनकी सह चेतना सरलता से भूमिका निभाती है। एक लेखक दावा करता है : "मैं अपनी पुस्तक के लिए बिना थके हुए एक दिन में दस हजार से भी अधिक शब्द लिख सकता हूँ। यदि मैं चाहूँ, मैं इसे बहुत तेजी से लिख सकता हूँ, और दूसरे लोग इसे पढ़ने पर तब भी इसे बहुत अच्छा पायेंगे।" ऐसा क्यों हैं? यह उसकी मुख्य चेतना और सह चेतना के एक साथ प्रयास का परिणाम है, क्योंकि उसकी सह चेतना भी आधा कार्य कर लेती है। किन्तु यह इस प्रकार हमेशा नहीं होता। अधिकांश सह चेतनाएँ बिल्कुल भी सम्मिलित नहीं होतीं। यदि आप इससे कुछ करवाना चाहते हैं तो यह अच्छा नहीं होगा, क्योंकि आप विपरीत परिणाम प्राप्त करेंगे।

एक स्पष्ट और स्वच्छ मन

कई लोग अभ्यास के दौरान मन शान्त नहीं कर पाते, और वे हर जगह जा कर चीगोंग गुरुओं से पूछते हैं: "गुरुजी, मैं शान्त अवस्था प्राप्त नहीं कर पाता भले ही मैं कैसे भी अभ्यास करूँ। जैसे ही मैं बैठता हूँ, मैं सभी वस्तुओं के बारे में सोचने लगता हूँ, जिनमें इधर-उधर के विचार और बातें शामिल हैं।" यह उफनती हुई नदियों और सागरों की तरह है जिसमें सब कुछ सतह पर आ जाता है, और व्यक्ति किसी भी प्रकार शान्त नहीं हो पाता। व्यक्ति शान्त अवस्था प्राप्त क्यों नहीं कर पाता? कुछ लोग इसे नहीं समझ पाते और मानते हैं कि इसके लिए कोई गुप्त विधि अवश्य होगी। वे सुप्रसिध्द चीगोंग गुरुओं को खोजेंगे : "कृपया मुझे कोई विकसित विधि सिखा दें जिससे मेरा मन शान्त हो सके।" मेरे विचार में, यह बाहरी मदद को देखने जैसा है। यदि आप स्वयं में सुधार करना चाहते हैं, आपको अपने अन्तरमन में देखना चाहिए और अपने हृदय पर परिश्रम करना चाहिए- केवल तभी आप वास्तव में उत्थान कर सकते हैं और ध्यान में बैठते समय शान्त अवस्था प्राप्त कर सकते हैं। शान्त अवस्था को प्राप्त करने की योग्यता गोंग है, और दिंग की गहराई व्यक्ति के स्तर को दर्शाती है।

एक साधारण व्यक्ति कैसे इच्छानुसार शान्त अवस्था प्राप्त कर सकता है? वह इसे बिल्कुल नहीं कर सकता जब तक उसका जन्मजात गुण बहुत अच्छा न हो। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति का शान्त अवस्था प्राप्त न कर पाने का मूल कारण किसी विधि का विषय नहीं है, बल्कि यह कि आपके मन और हृदय स्वच्छ नहीं हैं। साधारण मानव समाज में और आपसी मतभेदों में, आप अपने निजी लाभ, सभी प्रकार की मानव भावुकताओं, और इच्छाओं के मोह के लिए प्रतिद्वन्द और संघर्ष करते हैं। यदि आप इन वस्तुओं को नहीं छोड़ते और हल्केपन से नहीं लेते, आप सरलता से शान्त अवस्था कैसे प्राप्त कर सकते हैं? चीगोंग का अभ्यास करते समय, कोई कहता है : "मैं इस पर विश्वास नहीं करता। मेरे लिए आवश्यक है कि मैं मन को शान्त करूँ और सोचना बंद कर दूँ।" जैसे ही यह कहा जाता है, सभी विचार दोबारा उभर आते हैं, क्योंकि यह आपका मन है जो स्वच्छ नहीं है। इसलिए आप शान्त मन प्राप्त नहीं कर पाते।

कुछ लोग मेरे दृष्टिकोण से असहमत हो सकते हैं : "क्या कुछ चीगोंग गुरु लोगों को विशेष विधियाँ प्रयोग करना नहीं सिखाते? व्यक्ति ध्यान लगा सकता है, किसी वस्तु की कल्पना कर सकता है, अपना मन तानत्येन पर केन्द्रित कर सकता है, तानत्येन की ओर अन्दर देख सकता है, बुध्द के नाम का जाप कर सकता है, इत्यादि।" ये सभी विधियों के प्रकार हैं। किन्तु ये केवल विधियाँ ही नहीं हैं, किन्तु व्यक्ति की योग्यताओं को भी दर्शाती हैं। इस प्रकार, ये योग्यताएँ सीधे हमारी नैतिकगुण साधना और हमारे सुधार के स्तर से संबंधित हैं। इसके अतिरिक्त, व्यक्ति केवल इस प्रकार की विधियों के प्रयोग भर से शान्त अवस्था प्राप्त नहीं कर सकता। यदि आप इस पर विश्वास नहीं करते, आप प्रयास करके देख सकते हैं। विभिन्न प्रबल इच्छाओं और मोहभावों सहित और बिना सब कुछ छोड़ पाने में समर्थ हुए, आप प्रयास कर सकते और देख सकते हैं कि आप शान्त अवस्था प्राप्त कर सकते हैं या नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि बुध्द के नाम का जाप करने से यह हो जाएगा। क्या आप बुध्द के नाम का जाप करने से शान्त अवस्था प्राप्त कर सकते हैं? कोई कहता है : "बुध्द अमिताभ की पध्दति में अभ्यास करना सरल है। इसमें केवल बुध्द के नाम का जाप करना होता है।" आप उस प्रकार जाप करने का प्रयास क्यों नहीं करते? मैं इसे एक योग्यता कहूँगा। आप कहते हैं कि यह सरल है, किन्तु मैं कहता हूँ कि यह सरल नहीं है, क्योंकि कोई अभ्यास पध्दति सरल नहीं है।

हर कोई जानता है कि शाक्यमुनि ने "समाधि" सिखाई थी। उन्होंने समाधि से पहले क्या सिखाया था? उन्होंने "शील" और समस्त इच्छाओं और व्यसनों को छोड़ना सिखाया था जब तक कुछ शेष न बचे- तब व्यक्ति समाधि प्राप्त कर सकता है। क्या यह इस प्रकार का नियम नहीं है? किन्तु "समाधि" एक योग्यता भी है, क्योंकि आप "शील" को पूरी तरह एक साथ प्राप्त नहीं कर सकते। धीरे-धीरे सभी बुरी वस्तुओं को छोड़ते हुए, व्यक्ति की ध्यान लगाने की योग्यता में भी सतह से गहराई की ओर सुधार आयेगा। जब व्यक्ति बुध्द के नाम का जाप करता है, उसे यह एकाग्रचित होकर करना चाहिए जिससे मन में कुछ और न रहे और जब तक मस्तिष्क के और भाग सुन्न न पड़ जाएँ और उसे किसी भी वस्तु की सुधबुध न रहे, जिसमें एक विचार दूसरे हजारों विचारों को हटा दे, या जब तक "बुध्द अमिताभ" का प्रत्येक शब्द ऑंखों के सामने न आने लगे। क्या यह एक योग्यता नहीं है? क्या व्यक्ति इसे बिल्कुल आरम्भ में कर सकता है? वह नहीं कर सकता। यदि वह इसे नहीं कर सकता, वह अवश्य ही शान्त अवस्था प्राप्त करने में असमर्थ रहेगा। यदि आप इस पर विश्वास नहीं करते, आप इसे करके देख सकते हैं। अपने मुँह से बुध्द के नाम का लगातार जाप करते हुए, व्यक्ति का मन सभी वस्तुओं के बारे में सोचता है : "कार्यालय में मेरा अधीक्षक मुझे इतना नापसंद क्यों करता है? इस माह मेरा बोनस इतना कम क्यों है।" जितना अधिक वह इसके बारे में सोचता है, उतना ही वह क्रोधित होता जाता है, जबकि उसका मुंह अब भी बुध्द के नाम का जाप कर रहा होता है। क्या आप सोचते हैं कि यह व्यक्ति चीगोंग का अभ्यास कर सकता है? क्या यह योग्यता का विषय नहीं है? क्या यह आपके मन के अस्वच्छ होने का विषय नहीं है? कुछ लोगों के दिव्य नेत्र खुले होते हैं, और वे अन्दर की ओर तानत्येन को देख सकते हैं। जहाँ तक तान का प्रश्न है जो व्यक्ति के उदर के निचले भाग में जमा होता है, यह शक्ति पदार्थ जितना शुध्द होता है, यह उतना ही उज्जवल हो जाता है। जितना यह कम शुध्द होता है, उतना ही यह अपारदर्शी और प्रकाशहीन होता है। क्या व्यक्ति केवल अन्दर की ओर तानत्येन में उस तान को देख कर शान्त अवस्था प्राप्त कर सकता है? वह इसे प्राप्त नहीं कर सकता। यह स्वयं केवल विधि पर निर्भर नहीं है। कुंजी यह है कि व्यक्ति के मन और विचार स्पष्ट और स्वच्छ नहीं हैं। जब आप अन्दर की ओर तानत्येन पर देखते हैं, तान उज्जवल और सुन्दर दिखाई पड़ता है। पलभर में, यह तान एक भवनकक्ष में बदल जाता है : "यह कमरा मेरे पुत्र के लिए होगा जब उसकी शादी हो जाएगी। यह कमरा मेरी पुत्री के लिए होगा, हम वृध्द दम्पत्ति दूसरे कमरे में रहेंगे, और बीच का कमरा एक बैठक कक्ष होगा। यह बहुत अच्छा है! क्या मुझे यह भवनकक्ष मिलेगा? मुझे इसे प्राप्त करने का रास्ता खोजना पड़ेगा। क्या करना चाहिए?" लोग केवल इन वस्तुओं के मोहभाव में रहते हैं। क्या आप सोचते हैं कि आप इस प्रकार शान्त अवस्था प्राप्त कर लेंगे? यह कहा गया है : "जब मैं इस साधारण मानव समाज में आता हूँ, यह ठीक एक होटल में कुछ दिन रूकने जैसा है। तब मैं जल्दबाजी में चला जाता हूँ।" कुछ लोगों को केवल इस स्थान से मोह हो गया है और वे अपने घरों को भूल गये हैं।

सच्चे साधना अभ्यास में व्यक्ति को स्वयं अपने हृदय और आंतरिक प्रकृति का संवर्धन करना चाहिए। उसे अपने अन्दर खोज करनी चाहिए न कि बाहर। कुछ साधना पध्दतियाँ कहती हैं कि बुध्द व्यक्ति के हृदय में होते हैं, और इसमें भी कुछ सत्य है। कुछ लोग इस वाक्य को ठीक से नहीं समझे और कहते हैं कि उनके हृदय में बुध्द है, जैसे कि वे स्वयं बुध्द हों, या जैसे उनके हृदय में कोई बुध्द हो- उन्होंने इसे इस प्रकार समझा है। क्या यह गलत नहीं है? इसे इस प्रकार कैसे समझा जा सकता है? इसका अर्थ है कि यदि आपको साधना में सफल होना है आपको अपने हृदय का संवर्धन करना चाहिए- यह इस नियम को बताता है। आपके शरीर में एक बुध्द कैसे हो सकता है? आपको सफल होने के लिए साधना का अभ्यास करना आवश्यक है।

आप शान्त अवस्था प्राप्त नहीं कर पाते इसका कारण यह है कि आपका मन रिक्त नहीं है और आप उतने ऊँचे स्तर पर नहीं पहुँचे हैं, जिसे केवल क्रमदर प्राप्त किया जा सकता है। यह आपके सुधार के स्तर के साथ-साथ ही चलता है। जब आप मोहभाव छोड़ देते हैं, आपके स्तर में सुधार कर दिया जाता है, और आपकी ध्यान लगाने की क्षमता में भी सुधार होता है। यदि आप किसी विधि या प्रणाली द्वारा शान्त अवस्था प्राप्त करना चाहते हैं, मैं इसे बाहरी मदद को खोजना कहूँगा। चीगोंग अभ्यास में, हालांकि, भटक जाने और दुष्ट मार्ग का अनुसरण करने का तात्पर्य है कि लोगों द्वारा बाहरी मदद को खोजना। विशेष रूप से बुध्दमत में, यदि आप बाहरी मदद को खोजते हैं, यह कहा जाता है कि आपने एक आसुरिक मार्ग अपना लिया है। सच्चे साधना अभ्यास में व्यक्ति को हृदय का संवर्धन करना चाहिए : केवल जब आप अपने नैतिकगुण में सुधार करते हैं तभी आप एक स्पष्ट और स्वच्छ मन, और विचारमुक्त अवस्था (वूवेइ) प्राप्त कर सकते हैं। केवल जब आपके नैतिकगुण में सुधार हो जाता है तब आप ब्रह्माण्ड की प्रकृति के साथ आत्मसात हो सकते हैं और विभिन्न मानवीय इच्छाओं, मोहभावों, और दूसरी बुरी वस्तुओं को छोड़ सकते हैं। केवल तभी आप अपने अन्दर की बुरी वस्तुओं को छोड़ सकेंगे और उत्थान कर सकेंगे जिससे आप ब्रह्माण्ड की प्रकृति द्वारा नहीं रोके जाएंगे। तब सद्गुण पदार्थ को गोंग में रूपांतरित किया जा सकता है। क्या वे साथ-साथ ही नहीं चलते? यह केवल इस प्रकार का नियम है!

यह व्यक्ति के अपने कारण है कि वह शान्त अवस्था प्राप्त क्यों नहीं कर पाता, क्योंकि वह एक अभ्यासी के आदर्श तक नहीं पहुंच पाता। बाहरी कारणों के दृष्टिकोण से, एक वर्तमान अवस्था है जो आपके उच्च स्तरों की ओर साधना अभ्यास करने में गम्भीर बाधा डालती है, और यह अभ्यासियों पर गम्भीर प्रभाव डालती है। आप जानते हैं कि सुधारीकरण और उदारीकरण के साथ, अर्थव्यवस्था उदार हो गयी है और नीतियाँ भी कम रूकावट वाली हो गयी हैं। अनेक नई तकनीकें लाई गई हैं, और लोगों के रहन-सहन के स्तर में सुधार हुआ है। सभी साधारण लोग सोचते हैं कि यह एक अच्छी वस्तु है। किन्तु वस्तुओं को विपरीत दिशा से, दोनों ओर से देखा जाना चाहिए। सुधारीकरण और उदारीकरण के साथ, विभिन्न प्रकार की बुरी वस्तुओं का भी आयात हुआ है। यदि किसी साहित्यिक कथा को कुछ वासनायुक्त नहीं लिखा जाता, तो पुस्तक बिक नहीं पाती क्योंकि इससे बिक्री की संख्या पर प्रभाव पड़ता है। यदि फिल्म और टेलीविजन के कार्यक्रम शयनकक्ष के दृश्य नहीं दिखाते, तो उन्हें कोई भी देखता हुआ प्रतीत नहीं होता। जहाँ तक कलाकृतियों की बात है, कोई नहीं बता सकता कि यह सच्ची कला है या कुछ और। हमारी प्राचीन चीनी सांस्कृतिक कलाओं में ऐसी कोई वस्तुएँ नहीं थीं। हमारी चीनी राष्ट्र की संस्कृतियों का आविष्कार या निर्माण किसी एक व्यक्ति ने नहीं किया था। पूर्व ऐतिहासिक संस्कृति के बारे में बात करते हुए, मैंने बताया था कि सभी वस्तुओं का अपना मूल है। मानवीय नैतिक गुण भ्रष्ट हो गये हैं और बदल गये हैं। अच्छाई और बुराई को मापने वाले आदर्श सब बदल गये हैं। ये साधारण लोगों के विषय हैं। किन्तु यह ब्रह्माण्ड की प्रकृति, सत्य-करुणा-सहनशीलता, अपरिवर्तनीय रहती है जो अच्छे और बुरे लोगों में भेद करने के लिए एकमात्र मानक है। एक अभ्यासी की भाँति, यदि आप ऊपर उठकर आगे जाना चाहते हैं, आपको वस्तुओं को जांचने के लिए इस मानक का प्रयोग करना चाहिए- न कि साधारण लोगों के आदर्श का। इस प्रकार, यह बाहरी विघ्न होता है। इसमें और भी है, जैसे समलैंगिकता, वासना की छूट, और नशे की दवाओं का सेवन।

जब मानव समुदाय आज इस स्तर तक विकसित हो गया है, इसके बारे में सोचें : यदि यह इसी प्रकार चलता रहा तो क्या होगा? क्या इसके सदैव इसी प्रकार रहने की अनुमति हो सकती है? यदि मानवजाति इसके बारे में कुछ नहीं करती, देवलोक करेगा। जब कभी मानवजाति का विपत्तियों से सामना होता है, वह इसी प्रकार की परिस्थितियों में होता है। इतने व्याख्यानों में, मैंने मानवजाति के महान प्रलयों के विषय के बारे में बात नहीं की है। इस सनसनीखेज विषय पर धर्मों में और अनेक लोगों द्वारा चर्चा की गई है। मैं सभी के लिए यह प्रश्न उठा रहा हूँ, इसलिए सब इसके बारे में सोचें। हमारे साधारण मानव समाज में, मानव नैतिक आदर्श में इतना बदलाव आया है! एक-दूसरे के बीच तनाव इतना बढ़ गया है! क्या आप नहीं सोचते कि यह एक खतरनाक बिंदु तक पहुँच गया है? इसलिए, यह वर्तमान, समकालीन वातावरण गम्भीर रूप से हमारे अभ्यासियों की उच्च स्तरों की ओर साधना में विघ्न डालता है। सड़क के बीच में, ठीक ऊपर नग्न तस्वीरें दर्शाने के लिए लगी होती हैं। यदि आप नजर उठाएँगे, आप उन्हें देखेंगे।

लाओ ज़ ने एक बार यह वक्तव्य दिया था : "जब एक बुध्दिमान व्यक्ति ताओ के बारे में सुनता है, यह व्यक्ति इसका लगन से अभ्यास करेगा।" जब एक बुध्दिमान व्यक्ति ताओ के बारे में सीखता है, वह सोचता है : "अन्तत: मुझे उचित साधना पध्दति मिल गई है। और प्रतीक्षा क्यों की जाए और अभ्यास को आज से ही आरम्भ क्यों न किया जाए?" मेरे विचार में, जटिल वातावरण, बल्कि एक अच्छी वस्तु है। जितना अधिक यह जटिल होगा, उतना ही महान व्यक्ति यह उत्पन्न करेगा। यदि कोई स्वयं को इससे ऊपर और आगे उठा सके, उसकी साधना सर्वाधिक सघन होगी।

एक अभ्यासी के लिए जो सच्चे रूप से साधना अभ्यास करने के लिए प्रणबध्द है, मैं कहूँगा कि यह उसके लिए एक अच्छी वस्तु हो जाती है। बिना मतभेद उत्पन्न हुए या बिना आपके नैतिकगुण में सुधार के अवसरों के, आप विकास नहीं कर सकते। यदि हर कोई एक-दूसरे से अच्छा बना रहेगा, आप साधना का अभ्यास कैसे करेंगे? जहाँ तक उसकी बात है जो एक साधारण अभ्यासी है, जो "एक साधारण व्यक्ति है जो ताओ को सुनता है," और जिसके लिए यह ठीक होगा कि वह कभी साधना अभ्यास करे या कभी न करे; संभवत: वह साधना में असफल रहेगा। कुछ लोग जो यहाँ सुन रहे हैं पाते हैं कि जो गुरु कह रहे हैं उचित है। साधारण मानव समाज में लौटने के बाद, वे तब सोचेंगे कि वे तुरन्त लाभ अधिक व्यावहारिक और वास्तविक हैं। वे वास्तविक हैं। न केवल आप, बल्कि पश्चिम के अनेक करोड़पतियों और धनी लोगों ने पाया है कि मृत्यु के बाद कुछ शेष नहीं बचता। भौतिक संपत्ति जन्म के साथ नहीं आती, न ही यह मृत्यु के बाद आपके साथ जाएगी- यह बिल्कुल खोखली है। किन्तु यह गोंग इतना अनमोल क्यों है? यह इसलिए क्योंकि यह आपकी मूल आत्मा के शरीर से जुड़ा होता है, और यह जन्म के समय आपके साथ आता है और मृत्यु के बाद आपके साथ जाता है। हम कह चुके हैं कि व्यक्ति की मूल आत्मा लुप्त नहीं होती, और यह एक अन्धविश्वास नहीं है। जब हमारे भौतिक शरीरों की कोशिकाएँ हट जाती हैं, दूसरे भौतिक आयामों में कोशिकाओं से छोटे कण नष्ट नहीं होते। केवल एक कवच उतर जाता है।

जो सब मैंने अभी कहा वह व्यक्ति के नैतिकगुण के विषय से संबंधित है। शाक्यमुनि ने एक बार यह वक्तव्य दिया था, जो बौध्दिधर्म ने भी कहा था : "चीन की यह प्राचीन भूमि वह स्थान है जहाँ महान गुणों के लोग उत्पन्न होते हैं।" संपूर्ण इतिहासकाल में, अनेक भिक्षु और बहुत से चीनी लोग इससे बहुत गर्वान्वित रहे हैं; इससे यह जान पड़ता है कि वे उच्च स्तर के गोंग की साधना कर सकते हैं, और इसलिए कई लोग प्रसन्न होते हैं और गर्व महसूस करते हैं : "सही है, हम चीनी लोग! चीन की भूमि महान जन्मजात गुण और महान नैतिक गुण के लोग उत्पन्न कर सकती है।" वास्तव में, कई लोग इसके पीछे का अर्थ नहीं समझे हैं। चीन की भूमि महान गुण और उच्च स्तर के गोंग के लोगों को क्यों उत्पन्न कर पाती है? जो उन उच्च स्तर के लोगों ने कहा है कई लोग उसका सच्चा अर्थ नहीं समझते, न ही वे उन लोगों का स्तर या मनोस्थिति समझते हैं जो ऊँचे स्तरों और ऊँचे लोकों में हैं। नि:संदेह, हम कह चुके हैं कि हम यह नहीं सुझायेंगे कि इसका क्या अर्थ है। आप सब यह सोचें : केवल सर्वाधिक जटिल लोगों के समुदाय में और सर्वाधिक जटिल वातावरण में रहते हुए व्यक्ति उच्च स्तर के गोंग की साधना कर सकता है- इसका यह अर्थ है।

जन्मजात गुण

व्यक्ति का जन्मजात गुण उसके दूसरे आयाम के शरीर में स्थित पदार्थ सद्गुण की मात्रा से निर्धारित होता है। सद्गुण कम होने और काला पदार्थ अधिक होने से, व्यक्ति का कर्म क्षेत्र बड़ा होगा। उस स्थिति में, व्यक्ति निम्न जन्मजात गुण का होता है। बहुत अधिक सद्गुण या श्वेत पदार्थ होने पर, व्यक्ति का कर्म क्षेत्र छोटा होगा। परिणामस्वरूप, यह व्यक्ति अच्छे जन्मजात गुण वाला होगा। व्यक्ति का श्वेत पदार्थ और काला पदार्थ एक-दूसरे में परिवर्तित किया जा सकता है। उन्हें कैसे परिवर्तित किया जा सकता है? अच्छे कार्य करने से श्वेत पदार्थ उत्पन्न होता है, क्योंकि श्वेत पदार्थ कठिनाइयों के सहने, दु:ख भोगने, या अच्छे कार्यों को करने से प्राप्त होता है। काला पदार्थ गलत या बुरे कार्यों को करने से प्राप्त होता है, और यह कर्म है। इसमें परिवर्तन की यह प्रक्रिया होती है। साथ ही, इसका आगे ले जाने का भी संबंध होता है। क्योंकि यह मूल आत्मा के साथ जाता है, यह किसी एक जीवनकाल से उत्पन्न वस्तु नहीं हैं, बल्कि एक सुदूर काल से संचित होता आ रहा है। इसलिए, लोग कर्म प्राप्त करने और सद्गुण संचित करने के बारे में बात करते हैं। इसके अतिरिक्त, वे पूर्वजों द्वारा भी हस्तांतरित किए जा सकते हैं। कई बार, मैं याद करता हूँ जो पुराने चीनी लोग या वृध्द लोग कहते थे : "उसके पूर्वजों ने सद्गुण जमा किया है। सद्गुण जमा करो या सद्गुण खो दो।" वह कितना सही कहा गया था? यह बिल्कुल सही है, वास्तव में।

एक व्यक्ति का अच्छा या निम्न जन्मजात गुण यह निर्धारित कर सकता है कि उसका ज्ञानोदय का गुण अच्छा है या निम्न। एक व्यक्ति का निम्न जन्मजात गुण उसके ज्ञानोदय के गुण को भी बहुत निम्न कर सकता है। ऐसा क्यों है? यह इसलिए क्योंकि जिसका जन्मजात गुण अच्छा होता है उसके पास बहुत अधिक श्वेत पदार्थ होता है जो हमारे ब्रह्माण्ड और प्रकृति सत्य-करुणा-सहनशीलता के साथ बिना किसी बाधा के आत्मसात होता है। ब्रह्माण्ड की प्रकृति सीधे आपके शरीर में अभिव्यक्त हो सकती है और आपके शरीर के निकट संपर्क में रह सकती है। किन्तु काला पदार्थ ठीक विपरीत है। क्योंकि यह बुरे कार्यों को करने से प्राप्त होता है, यह हमारे ब्रह्माण्ड की प्रकृति से विपरीत दिशा में जाता है। इसलिए, काला पदार्थ हमारे ब्रह्माण्ड की प्रकृति से अलग हो जाता है। जब यह काला पदार्थ अत्यधिक मात्रा में संचित हो जाता है, यह व्यक्ति के शरीर को घेर कर एक क्षेत्र बना लेता है और उसे अन्दर लपेट लेता है। जितना बड़ा क्षेत्र होता है, उतना अधिक इसका घनत्व और मोटाई, और यह व्यक्ति के ज्ञानोदय के गुण को और बुरा बना देता है। यह इसलिए क्योंकि व्यक्ति ब्रह्माण्ड की प्रकृति सत्य-करुणा-सहनशीलता को प्राप्त करने में असमर्थ रहता है, क्योंकि उसने बुरे कार्यों को करने से काला पदार्थ प्राप्त किया है। अक्सर, ऐसे व्यक्ति के लिए साधना अभ्यास में विश्वास करना कठिन होता है। उसका ज्ञानोदय का गुण जितना निम्न होता है, उतने ही अधिक कर्म प्रतिरोध का वह सामना करेगा। जितनी अधिक कठिनाई वह सहन करेगा, उतना ही कम वह इसमें विश्वास करेगा और उतना ही अधिक कठिन उसके लिए साधना अभ्यास करना होगा।

जिस व्यक्ति के पास श्वेत पदार्थ बहुत अधिक होता है उसके लिए साधना का अभ्यास करना सरल होता है। यह इसलिए क्योंकि साधना के क्रम के दौरान, जब तक यह व्यक्ति ब्रह्माण्ड की प्रकृति के साथ आत्मसात होता है और उसके नैतिकगुण में सुधार होता है, उसका सद्गुण सीधे गोंग में परिवर्तित हो जाएगा। जिसका काला पदार्थ बहुत अधिक होता है, हालांकि, उसके लिए एक अतिरिक्त प्रक्रिया होती है। यह एक उत्पाद की भांति है जो एक कारखाना बनाता है : बाकि सब पूर्वनिर्मित पदार्थ के साथ आते हैं, जबकि यह व्यक्ति कच्चे पदार्थ के साथ आता है जिसे प्रक्रिया से गुजारना आवश्यक होता है। इसलिए, यह आवश्यक है कि वह पहले कठिनाइयाँ सहे और कर्म को हटाए, जिससे यह श्वेत पदार्थ में परिवर्तित हो सके, और यह पदार्थ सद्गुण बन सके। केवल तभी वह उच्च स्तर के गोंग को उत्पन्न कर सकता है। किन्तु अक्सर इस प्रकार के व्यक्ति का जन्मजात गुण अच्छा नहीं होता। यदि आप उसे दु:ख सहने के लिए कहते हैं, वह इसमें और कम विश्वास करेगा और उसके लिए उसे सहन करना और कठिन होगा। इसलिए, बहुत अधिक काले पदार्थ वाले व्यक्ति के लिए साधना अभ्यास करना कठिन होता है। इसलिए, ताओ विचारधारा या वह अभ्यास पध्दति जो केवल एक शिष्य को सिखाती थी उसमें अक्सर आवश्यक होता था कि गुरु शिष्य को खोजे न कि इसके विपरीत। यह इससे निर्धारित होता था कि किसी शिष्य के शरीर में ये वस्तुएँ कितनी अधिक मात्रा में हैं।

जन्मजात गुण व्यक्ति के ज्ञानोदय के गुण को निर्धारित करता है, किन्तु यह अटल नहीं है। कुछ लोगों का जन्मजात गुण बहुत अच्छा नहीं होता, किन्तु उनके घर का वातावरण बहुत अच्छा होता है; परिवार के कई सदस्य साधना का अभ्यास करते हैं। उनमें से कुछ धर्म उपासक भी होते हैं और साधना अभ्यास के विषय में बहुत विश्वास करते हैं। इस वातावरण में, उसे इसमें विश्वास कराया जा सकता है, और इससे ज्ञानोदय के गुण में सुधार हो सकता है। इसलिए यह अटल नहीं है। कुछ लोगों का जन्मजात गुण बहुत अच्छा होता है, किन्तु हमारे व्यावहारिक समाज में उस थोड़ी सी जानकारी द्वारा शिक्षित हो जाने पर, और विशेषकर क्योंकि कुछ वर्ष पहले धारणावादी शिक्षा में अटल पध्दतियों के कारण, उनके मन बहुत संकुचित बन गए हैं और वे अपनी जानकारी से आगे कुछ विश्वास नहीं करेंगे। यह उनके ज्ञानोदय के गुण को गम्भीर रूप से प्रभावित कर सकता है।

उदाहरण के लिए, मैंने कक्षा में दिव्य नेत्र के खुलने के बारे में बताया था। तुरन्त ही, एक अच्छे जन्मजात गुण के व्यक्ति का दिव्य नेत्र एक बहुत ऊँचे स्तर पर खुल गया। उसने बहुत से दृश्य देखे जो और लोग नहीं देख सके। उसने औरों को बताया : "वाह, मैंने पूरे सभागार में लोगों के शरीरों पर फालुन को बर्फ की तरह गिरते हुए देखा। मैंने देखा कि गुरु ली का वास्तविक शरीर कैसा दिखाई पड़ता है, गुरु ली का प्रभामण्डल, फालुन कैसा दिखाई पड़ता है, और वहाँ कितने फा-शरीर हैं।" उसने देखा कि गुरु विभिन्न स्तरों पर व्याख्यान दे रहे थे और कैसे फालुन अभ्यासियों के शरीरों को व्यवस्थित कर रहे थे। उसने यह भी देखा कि व्याख्यान के दौरान यह गुरु का गोंग-शरीर 2 था जो प्रत्येक विभिन्न स्तर पर व्याख्यान दे रहा था। इसके अतिरिक्त, उसने देखा कि अप्सराएँ पुष्प वर्षा कर रही हैं, और इत्यादि। उसने इस प्रकार की कुछ आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखीं, जो दर्शाता है कि उसका जन्मजात गुण बहुत अच्छा था। जैसे-जैसे वह बताता गया, अन्त में उसने कहा : "मैं इन वस्तुओं में विश्वास नहीं करता।" इनमें से कुछ वस्तुएँ पहले ही विज्ञान द्वारा प्रमाणित की जा चुकी हैं, और कई वस्तुएँ आधुनिक विज्ञान द्वारा समझाई भी जा सकती हैं; हम उनमें से कुछ पर चर्चा भी कर चुके हैं। यह इसलिए क्योंकि जो चीगोंग समझता है वह वास्तव में आधुनिक विज्ञान की समझ से आगे है- यह निश्चित है। इस विचार से, व्यक्ति का जन्मजात गुण पूरी तरह उसके ज्ञानोदय के गुण को निर्धारित नहीं करता।

ज्ञानप्राप्ति

"ज्ञानप्राप्ति" क्या है? "ज्ञानप्राप्ति" शब्द धर्म से आया है। बुध्दमत में, यह एक अभ्यासी की बौध्द धर्म की समझ, समझ के बारे में ज्ञानोदय, और उच्चतम ज्ञानप्राप्ति को दर्शाता है। इसका अर्थ है विवेक का ज्ञानोदय। हालांकि, आजकल इसे पहले ही साधारण लोगों में प्रयोग किया जा रहा है। इसका अर्थ माना जाता है कि यह व्यक्ति बहुत चतुर है और यह पढ़ सकता है कि उसके अधीक्षक के मन में क्या है। वह वस्तुओं को तेजी से सीख सकता है और जानता है कि अधीक्षक को कैसे प्रसन्न रखा जाए। लोग उसे अच्छा ज्ञानोदय का गुण कहते हैं, और इसे अक्सर इस प्रकार समझा जाता है। आप एक बार साधारण लोगों के स्तर से कुछ ही ऊपर उठते हैं, आप पाएंगे कि इस स्तर पर नियम, जैसा साधारण लोगों द्वारा समझे जाते हैं, अक्सर गलत हैं। यह वह ज्ञानप्राप्ति नहीं है जिससे हमारा संदर्भ है। बल्कि, एक चतुर व्यक्ति का ज्ञानोदय का गुण अच्छा नहीं होता, क्योंकि जो व्यक्ति अधिक चतुर है केवल दिखावे के लिए काम करेगा जिससे अपने प्रशासक या अधीक्षक की प्रशंसा पा सके। उस स्थिति में, क्या वास्तविक कार्य किसी दूसरे के द्वारा नहीं किया जाएगा? इस प्रकार, यह व्यक्ति दूसरों का ऋणि होगा। क्योंकि वह चतुर है और जानता है कि दूसरों को कैसे प्रसन्न किया जाए, वह अधिक लाभ प्राप्त करेगा जबकि दूसरे अधिक हानि। क्योंकि वह चतुर है, उसे कोई हानि नहीं सहनी पड़ेगी, न ही वह सरलता से कुछ त्याग करेगा। परिणामस्वरूप, दूसरों को हानियाँ सहनी होंगी। जितना अधिक वह इस तुच्छ व्यावहारिक लाभ की परवाह करता है उतना ही वह मन से संकुचित बन जाता है, और उतना ही वह महसूस करता है कि वह साधारण लोगों के भौतिक लाभ नहीं छोड़ सकता। इसलिए वह स्वयं को बहुत व्यावहारिक मानेगा, और कोई हानि नहीं सहेगा।

कुछ लोग इस व्यक्ति से ईर्ष्या भी करते हैं! मैं आपको बता रहा हूँ कि उससे ईर्ष्या न करें। आप नहीं जानते कि वह कितना थकावट भरा जीवन जीता है : वह ठीक से खा या सो नहीं सकता; उसे सपने में भी स्व-लाभ के खोने का भय लगा रहता है, और वह निजी लाभ के लिए पूरा जोर लगा देता है। क्या आप नहीं कहेंगे कि वह एक थकावट भरा जीवन जीता है, क्योंकि उसका पूरा जीवन उसी के लिए समर्पित है? हम कहते हैं कि जब आप मतभेद में एक कदम पीछे हटते हैं, आप सागरों और आकाश को असीमित पाएंगे, और यह निश्चित ही दूसरी अवस्था होगी। उस प्रकार का व्यक्ति, हालांकि, हार नहीं मानेगा और बहुत थकावट भरा जीवन जिएगा। आपको उससे नहीं सीखना चाहिए। साधकों के समुदाय में यह कहा जाता है : "इस प्रकार का व्यक्ति पूरी तरह खो चुका है। वह साधारण लोगों के बीच भौतिक लाभों के लिए पूरी तरह खो चुका है।" उसे सद्गुण संरक्षित रखने के लिए कहना उतना सरल नहीं होगा! यदि आप उसे साधना अभ्यास करने के लिए कहेंगे, वह आप पर विश्वास नहीं करेगा : "साधना अभ्यास? जब तुम्हें पीटा जाता है या भला-बुरा कहा जाता है, अभ्यासी होने पर, तुम वापस नहीं झगड़ते। जब और लोग तुम्हारे लिए कठिनाइयाँ उत्पन्न करते हैं, इसके बजाय कि तुम वैसा ही करो जैसा वे करते हैं, तुम्हें अपने मन में उन्हें धन्यवाद भी कहना पड़ता है। तुम सब आह क्यू बन गए हो! तुम सब मानसिक रूप से बीमार हो!" इस प्रकार के व्यक्ति के लिए, कोई तरीका नहीं है जिससे वह साधना अभ्यास समझ जाए। वह कहेगा कि आप अविश्वसनीय और मूर्ख हैं। क्या आप नहीं कहेंगे कि उसे बचाना कठिन है?

यह वह ज्ञानोदय नहीं है जिससे हमारा संदर्भ है। बल्कि, जिसे यह व्यक्ति स्व-लाभ की दृष्टि से "मूर्खता" कहता है, वह ज्ञानोदय है जिसकी हमने बात की है। नि:संदेह, इस प्रकार का व्यक्ति वास्तव में मूर्ख नहीं हैं। हम केवल निजी, स्व-लाभों को अलगाव की दृष्टि से देखते हैं, जबकि दूसरे क्षेत्रों में हम बहुत बुध्दिमान हैं। वैज्ञानिक शोध परियोजनाओं या हमारे अधीक्षकों द्वारा सौंपे गए कार्य या दूसरे कर्तव्यों को पूरा करने में, हम बहुत स्पष्ट-मन हैं और उन्हें बहुत अच्छी तरह करते हैं। केवल अपने निजी लाभों या अपने पारस्परिक मतभेदों के दृष्टिकोण से हम कम परवाह करते हैं। आपको कौन मूर्ख कहेगा? कोई नहीं कहेगा कि आप मूर्ख हैं- यह निश्चित ही इस प्रकार है।

आइए एक वास्तविक मूर्ख व्यक्ति के बारे में बात करें, क्योंकि यह नियम ऊँचे स्तरों पर पूरी तरह विपरीत हो जाता है। एक मूर्ख व्यक्ति साधारण लोगों के बीच कोई बड़ा गलत कार्य नहीं कर सकता, और न ही वह स्व-लाभ के लिए संघर्ष या झगड़ा करेगा। वह प्रसिध्दि नहीं चाहता या सद्गुण नहीं खोता, बल्कि दूसरे उसे सद्गुण देते हैं। उसकी पिटाई करने या उसे भला-बुरा कहने, दोनों से उसे सद्गुण मिलता है, और यह पदार्थ अत्यधिक मूल्यवान है। हमारे ब्रह्माण्ड में, यह नियम है : त्याग नहीं तो लाभ नहीं। लाभ प्राप्त करने के लिए, त्याग आवश्यक है। जब और लोग इस बहुत मूर्ख व्यक्ति को देखते हैं, वे सब उसे अपशब्द कहते हैं : "तुम इतने मूर्ख हो।" इस अपशब्द के कहने से, सद्गुण का एक भाग उसकी ओर फेंक दिया जाएगा। उसका लाभ लेने पर, आप लाभ पाने वाले पक्ष में हैं, इसलिए आपको कुछ त्यागना आवश्यक है। यदि कोई वहां जाता है और उसे ठोकर मारता है : "तुम इतने बड़े मूर्ख हो।" तभी, सद्गुण का एक बड़ा भाग उसकी ओर दोबारा उछाला जाएगा। जब कोई उस पर जोर चलाता है या उसे ठोकर मारता है, वह केवल मुस्कुराएगा : "इसे लाओ। तुम मुझे सद्गुण दे रहे हो, और मैं इसमें से जरा भी नहीं ठुकराऊँगा!" तब उच्च स्तरों के नियमों के अनुसार, इसके बारे में सोचें, कौन चतुर है? क्या यह व्यक्ति चतुर नहीं है। वह सबसे अधिक चतुर है क्योंकि वह बिल्कुल सद्गुण नहीं खोता। जब आप इसकी ओर सद्गुण उछालते हैं, वह इसमें से जरा भी नहीं ठुकराता। वह इसमें से सारा ले लेता है और एक मुस्कुराहट के साथ स्वीकार करता है। वह इस जीवन में मूर्ख हो सकता है, किन्तु अगले में नहीं- उसकी मूल आत्मा मूर्ख नहीं है। धर्म में यह कहा गया है कि बहुत सद्गुण के साथ, व्यक्ति अगले जीवन में एक उच्च पदाधिकारी बनेगा या बहुत सा धन अर्जित करेगा; ये दोनों व्यक्ति के सद्गुण से बदले जाते हैं।

हम कह चुके हैं कि सद्गुण को सीधे गोंग में रूपांतरित किया जा सकता है। क्या आपके साधना स्तर की ऊँचाई इस सद्गुण को रूपांतरित करने से नहीं आती? इसे सीधे गोंग में रूपांतरित किया जा सकता है। क्या गोंग जो व्यक्ति का स्तर निर्धारित करता है और गोंग सामर्थ्य इस पदार्थ से रूपांतरित नहीं होते? क्या आप नहीं कहेंगे यह बहुत मूल्यवान है? यह जन्म के साथ आ सकता है और मृत्यु के बाद साथ जा सकता है। बुध्दमत में यह कहा गया है कि आपका साधना स्तर आपकी फल पदवी है। जितना आप त्याग करेंगे उतनी मात्रा में आप लाभ प्राप्त करेंगे- यह केवल ऐसा एक नियम है। धर्म में कहा गया है कि सद्गुण के साथ व्यक्ति अगले जीवन में उच्च पदाधिकारी बन सकता है या बहुत सा धन अर्जित कर सकता है। कम सद्गुण होने पर, व्यक्ति को भीख मांग कर भोजन मिलना भी कठिन होगा क्योंकि बदलने के लिए कोई सद्गुण नहीं है। त्याग नहीं तो प्राप्ति नहीं! बिना किसी सद्गुण के, व्यक्ति दोनों शरीर और आत्मा से नष्ट हो जाएगा; वह वास्तव में मृत हो जाएगा।

अतीत में, एक चीगोंग गुरु था जो जब पहली बार जनता के बीच आया उसका स्तर बहुत ऊँचा था। यह चीगोंग गुरु बाद में प्रसिध्दि और स्व-लाभ में लिप्त हो गया। उसका गुरु उसकी सह-आत्मा को साथ ले गया क्योंकि वह उन लोगों से संबंधित था जो सह-आत्मा की साधना करते थे। जब उसकी सह-आत्मा साथ थी, वह अपनी सह-आत्मा के प्रभाव में था। उदाहरण के लिए, एक दिन उसके कार्यालय ने एक भवन कक्ष का आबंटन किया। अधीक्षक ने कहा : "जिन सभी को भवन कक्ष की आवश्यकता है यहाँ आकर अपनी परिस्थितियों का वर्णन करें और समझायें कि आप में से सभी को भवन कक्ष क्यों चाहिए।" सभी ने अपने कारण बताए जबकि इस व्यक्ति ने एक शब्द भी नहीं कहा। अन्त में, अधीक्षक ने पाया कि इस व्यक्ति को इसकी औरों से अधिक आवश्यकता है, और भवन कक्ष उसे देना चाहिए। और लोगों ने दावा किया : "नहीं, भवन कक्ष उसे नहीं दिया जाना चाहिए। यह मुझे दिया जाना चाहिए क्योंकि मुझे भवन कक्ष की बहुत आवश्यकता है।" इस व्यक्ति ने कहा "तब तुम आगे बढ़ो और इसे ले लो।" एक साधारण व्यक्ति उसे मूर्ख मानेगा। कुछ लोग जानते थे कि वह एक अभ्यासी है और उससे पूछा : "एक अभ्यासी की भांति, तुम कुछ नहीं चाहते। तुम क्या चाहते हो?" उसने उत्तार दिया, "मैं वह लूँगा जो और नहीं चाहते।" वास्तव में, वह मूर्ख नहीं था और वह बहुत बुध्दिमान था। केवल निजी, स्व-लाभ के दृष्टिकोण से, वह इस प्रकार था। वह प्रकृति के क्रम का अनुसरण करने में विश्वास करता था। औरों ने उससे दोबारा पूछा : "इन दिनों व्यक्ति क्या नहीं चाहता?" उसने उत्तार दिया : "कोई भी जमीन पर पड़े हुए पत्थर के टुकड़ों को नहीं चाहता जो इधर-उधर ठोकर खाते हैं। इसलिए मैं उसे उठा लूँगा।" साधारण लोग इसे अविश्वसनीय पाते हैं और अभ्यासियों को नहीं समझ सकते। वे इसे नहीं समझ सकते, क्योंकि उनके विचारों के आयाम कहीं दूर हैं और उनके स्तरों की दूरी बहुत अधिक है। नि:संदेह, वह उस पत्थर को उठाने नहीं जा रहा था। उसने एक नियम बताया जो एक साधारण व्यक्ति नहीं समझ सकता : "मैं साधारण लोगों के बीच कुछ इच्छा नहीं रखता।" आइए पत्थर के बारे में बात करें। आप जानते हैं कि बुध्दमत के शास्त्रों में लिखा है : "परमानन्द के दिव्यलोक में, वृक्ष सोने के बने हैं, और इसी प्रकार भूमि, पक्षी, पुष्प, घर सोने के हैं। बुध्द शरीर भी सुनहरा और आभावान है।" वहाँ कोई पत्थर का टुकड़ा नहीं मिलता। कहा जाता है कि वहाँ मुद्रा के रूप में पत्थर का प्रयोग होता है। वह वहाँ पत्थर का टुकड़ा लेकर नहीं जाने वाला था, किन्तु उसने यह नियम बताया जो एक साधारण व्यक्ति नहीं समझ सकता। वास्तव में, अभ्यासी कहेंगे : "साधारण लोगों की अपनी इच्छाएँ हैं, और हम उनकी चाह नहीं रखते। जहाँ तक जो साधारण लोगों के पास है, हमें उसमें भी रुचि नहीं है। किन्तु जो हमारे पास है वह ऐसा है जो साधारण लोग नहीं प्राप्त कर सकते, भले ही वे उसे चाहते हों।"

वास्तव में, ज्ञानप्राप्ति जिसकी हमने अभी बात की उसका संदर्भ साधना अभ्यास के दौरान एक प्रकार के ज्ञानोदय से है, और यह साधारण लोगों के ज्ञानोदय से बिल्कुल विपरीत है। ज्ञानप्राप्ति जिससे हमारा वास्तव में संदर्भ है वह यह विषय है कि व्यक्ति साधना अभ्यास के दौरान गुरु द्वारा सिखाए गए फा या ताओ गुरु द्वारा सिखाए गए ताओ की ज्ञानप्राप्ति कर सकता है और स्वीकार कर सकता है, यह कि वह विपत्तियों का सामना करते हुए स्वयं को एक अभ्यासी मानता है, और यह कि वह साधना का अभ्यास करते समय फा से जुड़ा रह सकता है अथवा नहीं। जहाँ तक कुछ लोगों की बात है, भले ही आप उन्हें यह कैसे भी बताएँ, वे तब भी विश्वास नहीं करेंगे और सोचेंगे कि साधारण व्यक्ति होना अधिक व्यावहारिक है। वे अपने जिद्दी विश्वासों पर अडिग रहेंगे न कि उन्हें छोड़ेंगे, और यह उन्हें विश्वास करने में असमर्थ बना देता है। कुछ लोग केवल रोगों को ठीक करना चाहते हैं। जब कभी मैं यह कहता हूँ कि चीगोंग का रोगों को ठीक करने में किसी भी प्रकार प्रयोग नहीं होता, उनके मन विपरीत प्रतिक्रिया करेंगे और, इसलिए, जो बाद में पढ़ाया गया है वे विश्वास नहीं करेंगे।

कुछ लोग अपने ज्ञानोदय के गुण में सुधार कर ही नहीं सकते। वे बिना परवाह किए मेरी पुस्तक में चिन्ह बना देते हैं। हमारे वे अभ्यासी जिनके दिव्य नेत्र खुले हैं देख सकते हैं कि यह पुस्तक बहुरंगी, सुनहरी, और आभावान है। प्रत्येक शब्द मेरे फा-शरीर का स्वरूप दर्शाता है। यदि मैं असत्य कहता हूँ, तो मैं सब को धोखा दे रहा हुँगा। जो चिन्ह आपने बनाया बहुत काला दिखाई पड़ता है। आप इसमें बिन परवाह चिन्ह बनाने का साहस कैसे कर सकते हैं? हम यहाँ क्या कर रहे हैं? क्या हम उच्च स्तरों की ओर साधना अभ्यास के लिए आपका मार्गदर्शन नहीं कर रहे हैं? ऐसी वस्तुएँ हैं जिन पर आपको भी विचार करना चाहिए। यह पुस्तक आपके साधना अभ्यास का मार्गदर्शन कर सकती है। क्या आप नहीं सोचते कि यह अनमोल है? क्या आप बुध्द की उपासना द्वारा वास्तव में साधना अभ्यास कर सकते हैं? आप बहुत श्रध्दालु हैं और उस बुध्द प्रतिमा जिसके लिए आप रोज धूपबत्ताी जलाते हैं, को हल्के से छूने भर का भी साहस नहीं करते किन्तु आप दाफा का अनादर करने का साहस करते हैं जो वास्तव में साधना अभ्यास में आपका मार्गदर्शन कर सकता है।

व्यक्ति के ज्ञानोदय के गुण के विषय पर बात करने पर, इसका संदर्भ आपकी किसी वस्तु की समझ की गहराई से है जो साधना अभ्यास के दौरान विभिन्न स्तरों पर होती है, या किसी विशिष्ट फा से है जो गुरु ने सिखाया है। किन्तु यह अब भी मूलभूत ज्ञानप्राप्ति नहीं है जिससे हमारा संदर्भ है। मूलभूत ज्ञानप्राप्ति जिसके बारे में हम बात करते हैं उसका अर्थ है : व्यक्ति के जीवनकाल में, साधना अभ्यास आरम्भ होने के समय से वह निरन्तर उत्थान करेगा और मानव मोहभावों और विभिन्न इच्छाओं को छोड़ता जाएगा, और उसका गोंग भी निरन्तर बढ़ता जाएगा जब तक साधना अभ्यास का अन्तिम पड़ाव न आ जाए। जब यह पदार्थ सद्गुण पूरी तरह गोंग में रूपांतरित हो जाता है और उस व्यक्ति के गुरु द्वारा रचित साधना यात्रा अन्तिम पड़ाव तक आ जाती है, "बूम!" समस्त बंधन धमाके के साथ उसी पल खुल जाएंगे। उसका दिव्य नेत्र उसके स्तर के उच्चतम बिंदु तक पहुँच जाएगा, और अपने स्तर पर वह विभिन्न आयामों के सत्य को, विभिन्न काल-अवकाशों में विभिन्न जीवों के स्वरूपों, और हमारे ब्रह्माण्ड के सत्य को देख सकता है। उसकी समस्त दिव्य शक्तियाँ प्रकट होंगी, और वह विभिन्न प्रकार की जीवन सत्ताओं से संपर्क कर सकेगा। इस समय, क्या यह व्यक्ति एक महान ज्ञानप्राप्त व्यक्ति या साधना अभ्यास द्वारा ज्ञानप्राप्त व्यक्ति नहीं है? इसे प्राचीन भारतीय भाषा में रूपांतरित किया जाए तो, वह एक बुध्द है।

ज्ञानप्राप्ति जिससे हमारा संदर्भ है वह यह मूलभूत ज्ञानप्राप्ति है जो आकस्मिक ज्ञानप्राप्ति से संबंधित है। आकस्मिक ज्ञानप्राप्ति का अर्थ है कि व्यक्ति अपनी जीवनभर की साधना के दौरान बंधित रहता है, वह नहीं जानता कि उसका गोंग स्तर कितना ऊँचा है या उसका सवंर्धित गोंग किस रूप में दिखाई पड़ता है। वह कुछ भी महसूस नहीं करता, और उसके शरीर की समस्त कोशिकाएँ भी बंधित रहती हैं। गोंग जिसकी उसने साधना की है अन्तिम पड़ाव तक बंधित रहता है, और केवल तभी यह बंधनमुक्त हो सकता है। केवल कोई महान जन्मजात गुण वाला व्यक्ति इसे कर सकता है, क्योंकि यह साधना अभ्यास बहुत दु:खदाई होता है। उसे आरम्भ से ही एक अच्छा व्यक्ति होना आवश्यक होता है। उसे सदैव नैतिकगुण में सुधार करना होता है, सदैव कठिनाइयाँ सहनी होती हैं, साधना में निरन्तर उत्थान करना होता है, और सदैव नैतिकगुण सुधार के लिए तत्पर रहना होता है, भले ही वह स्वयं अपना गोंग न देख सके। इस प्रकार के व्यक्ति के लिए साधना सर्वाधिक कठिन होती है, और यह आवश्यक है कि वह कोई महान जन्मजात गुण वाला व्यक्ति हो। यह व्यक्ति अनेक वर्षों तक बिना कुछ जाने साधना अभ्यास करेगा।

ज्ञानप्राप्ति का एक और प्रकार होता है जिसे क्रमिक ज्ञानप्राप्ति कहते हैं। बिल्कुल आरम्भ से ही, कई लोग फालुन का आवर्तन महसूस कर चुके हैं। उसी समय, मैंने सभी के दिव्य नेत्र भी खोल दिए हैं। अनेक कारणों से, कुछ लोग यदि अभी नहीं तो भविष्य में वस्तुओं को देख सकेंगे। वे वस्तुओं को धुंधलेपन से देखते हुए और स्पष्ट देख सकेंगे, और वे इसे प्रयोग न कर पाने से प्रयोग कैसे करें यह जान सकेंगे। व्यक्ति का स्तर निरन्तर बढ़ेगा। जैसे-जैसे आपके नैतिकगुण में सुधार होता है और विभिन्न मोहभाव छूटते हैं, अनेक दिव्य सिध्दियाँ विकसित हो रही होती हैं। साधना अभ्यास की संपूर्ण रूपांतरण प्रक्रिया और शरीर की रूपांतरण प्रक्रिया सब इस परिस्थिति में होंगी कि आप उन्हंत देख या महसूस कर सकते हैं। परिवर्तन अन्तिम पड़ाव तक निरन्तर होते रहेंगे जब आप पूरी तरह ब्रह्माण्ड के सत्य को समझ सकते हैं, और जब आप साधना में उच्चतम आशान्वित बिंदु तक पहुँचते हैं। मूल शरीर का रूपांतरण और दिव्य सिध्दियों का प्रबलन एक विशिष्ट अंश तक पहुँच चुका होगा और क्रमबध्द इस ध्येय को प्राप्त करेगा। यह क्रमिक ज्ञानप्राप्ति है। यह क्रमिक ज्ञानप्राप्ति की प्रणाली भी सरल नहीं है। दिव्य सिध्दियाँ होने पर, कुछ लोग अपने मोहभाव नहीं छोड़ सकते और कदाचित उनका दिखावा करेंगे या कोई बुरे कार्य करेंगे। आप इस प्रकार गोंग की हानि करेंगे, और आपका साधना अभ्यास व्यर्थ रहेगा और असफलता में समाप्त होगा। कुछ लोग विभिन्न स्तरों पर विभिन्न जीवन सत्ताओं को देख और परख सकते हैं। कोई आपको यह या वह करने के लिए कह सकता है। वह व्यक्ति आपको अपनी वस्तुओं का अभ्यास करने के लिए और अपना शिष्य बनाने के लिए कह सकता है, किन्तु वह आपको उचित फल प्राप्त करने में मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने, स्वयं भी, उचित फल प्राप्त नहीं किया है।

इसके अतिरिक्त, उच्च आयामों में सभी प्राणी देवता होते हैं जो वृहत रूप धारण कर सकते हैं और पूरी तरह अपनी अलौकिक शक्तियों का प्रदर्शन कर सकते हैं। यदि आपका मन उचित नहीं है, क्या आप उनका अनुसरण नहीं करेंगे? एक बार आप उनका अनुसरण करते हैं, आपका साधना अभ्यास व्यर्थ समाप्त होगा। यदि वह प्राणी एक सच्चा बुध्द या सच्चा ताओ भी हो, आपको तब भी साधना अभ्यास दोबारा आरम्भ करना होगा। क्या वे देवता नहीं है भले ही वे दिव्यलोक के किसी भी स्तर से आए हों? केवल तभी जब व्यक्ति साधना में एक बहुत ऊँचे स्तर पर पहुँच जाता है और ध्येय प्राप्त कर लेता है केवल तभी वह ऊपर और आगे उठ सकता है। एक साधारण व्यक्ति के लिए, हालांकि, एक देवता निश्चित ही बहुत ऊँचा, बड़ा, और बहुत सामर्थ्यवान दिखाई दे सकता है। किन्तु हो सकता है कि उस प्राणी ने भी उचित फल प्राप्त न किया हो। विभिन्न संदेशों द्वारा विघ्नों और विभिन्न दृश्यों द्वारा ध्यान भंग होने से, क्या आप स्थिर रह सकते हैं? इसलिए, दिव्य नेत्र खुले होने से भी साधना अभ्यास करना कठिन होता है, और अपने नैतिकगुण को उचित प्रकार नियन्त्रित रखना दुष्कर होता है। सौभाग्यवश, हालांकि, हमारे अभ्यासियों में से अनेकों की दिव्य सिध्दियाँ उनकी साधना प्रक्रिया के आधे रास्ते में खोल दी जाएंगी, और वे क्रमिक ज्ञानप्राप्ति के स्तर पर पहुँच जाएंगे। हर किसी का दिव्य नेत्र खोला जाएगा, किन्तु अनेक लोगों की दिव्य सिध्दियों को प्रकट होने की अनुमति नहीं होगी। जब आपका नैतिकगुण क्रमश: एक विशिष्ट स्तर तक पहुँचता है और आप स्वयं को एक स्थिर मन से संभाल सकते हैं, वे सब एक साथ धमाके साथ खुल जाएंगी। एक विशिष्ट स्तर पर, आप क्रमिक ज्ञानप्राप्ति की अवस्था में प्रवेश करेंगे, और इस समय पर आपको स्वयं को उचित प्रकार संभालना सरल होगा। विभिन्न दिव्य सिध्दियाँ उभर कर आएंगी। आप साधना में स्वयं उत्थान करेंगे जब तक, अन्त में, वे सब बंधनमुक्त नहीं हो जातीं। आपको अपने साधना अभ्यास के आधे रास्ते में उन्हें रखने की अनुमति होगी। हमारे अनेक अभ्यासी इस वर्ग से संबंधित हैं, इसलिए आपको वस्तुओं को देखने के लिए चिन्तित नहीं होना चाहिए।

हर किसी ने सुना होगा कि ज़ेन बुध्दमत भी आकस्मिक ज्ञानप्राप्ति और क्रमिक ज्ञानप्राप्ति के बीच मतभेदों के बारे में कहता है। ह्नेनेंग, जेन बुध्दमत के छठे धर्माचार्य ने, आकस्मिक ज्ञानप्राप्ति सिखाई थी जबकि शनश्यो3 जो जेन बुध्दमत की उत्तारी विचारधारा से थे ने क्रमिक ज्ञानप्राप्ति सिखाई थी। बुध्दमत के शिक्षण पर दोनों के बीच मतभेद इतिहास में बहुत लम्बे समय तक चला। मैं इसे व्यर्थ मानता हूँ। क्यों? यह इसलिए क्योंकि जिससे उनका संदर्भ था वह साधना अभ्यास की प्रक्रिया में केवल एक सिध्दान्त की समझ के बारे में था। जहाँ तक इस सिध्दान्त का प्रश्न है, कुछ लोग इसे एक साथ समझ सकते हैं, जबकि दूसरे इसके बारे में ज्ञानोदय कर सकते हैं और क्रमश: समझ सकते हैं। क्या यह महत्वपूर्ण है कि कोई कैसे ज्ञानप्राप्त करता है? यह बेहतर होगा यदि कोई इसे एक साथ समझ सके, किन्तु यह भी अच्छा है कि कोई इसके बारे में क्रमश: ज्ञानोदय करे। क्या दोनों ज्ञानप्राप्ति के प्रकार नहीं हैं? दोनों ही ज्ञानप्राप्ति हैं, इसलिए कोई भी गलत नहीं हैं।

महान जन्मजात गुण वाला व्यक्ति

"महान जन्मजात गुण" वाला व्यक्ति क्या है? किसी महान जन्मजात गुण वाले व्यक्ति और किसी अच्छे या निम्न जन्मजात गुण वाले व्यक्ति के बीच भिन्नताएँ होती हैं। किसी महान जन्मजात गुण वाले व्यक्ति को खोजना बहुत कठिन होता है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति का जन्म बहुत लम्बे ऐतिहासिक काल के बाद होता है। नि:संदेह एक महान जन्मजात गुण वाले व्यक्ति के पास सर्वप्रथम बहुताधिक मात्रा में सद्गुण और इस श्वेत पदार्थ का बहुत बड़ा क्षेत्र होना चाहिए- यह निश्चित है। साथ ही, यह व्यक्ति सबसे कठोरतम कठिनाइयों को सहने में भी समर्थ होना चाहिए। उसके पास एक महान सहनशीलता का मन भी होना चाहिए, और वह त्याग करने के लिए समर्थ होना चाहिए। उसे सद्गुण को अच्छी तरह संरक्षित भी रखना चाहिए, अच्छा ज्ञानोदय का गुण होना चाहिए, इत्यादि।

सबसे कठोरतम कठिनाई क्या है? बुध्दमत में यह माना जाता है कि मानव होना दु:ख भोगना है- जब तक आप मनुष्य हैं, आपको दु:ख भोगना होगा। यह विश्वास करता है कि दूसरे आयामों में प्राणियों के हमारे समान साधारण मानव शरीर नहीं होते। वे इसलिए रोगग्रस्त नहीं होते, और न ही वहाँ जन्म, वृध्दावस्था, रोग, और मृत्यु की समस्याएँ होती हैं। वहाँ आरम्भ से ही इस प्रकार की पीड़ा नहीं होती। दूसरे आयाम में लोग उड़ सकते हैं क्योंकि वे भारमुक्त होते हैं और बहुत अद्भुत होते हैं। इस शरीर के कारण, साधारण लोगों का इस समस्या से सामना होगा : वे सर्दी, गर्मी, प्यास, भूख, या थकान को सहन नहीं कर सकते और उन्हें जन्म, वृध्दावस्था, रोग, और मृत्यु से भी गुजरना होता है।

मैंने एक समाचार पत्र में पढ़ा था कि तांगशान4 में भूकम्प के समय, भूकम्प से बहुत से लोग मारे गए, किन्तु कुछ बचा लिए गए। इस वर्ग के लोगों का एक विशेष सामाजिक सर्वेक्षण किया गया। उनसे पूछा गया : "मृत्यु की अवस्था में आपको कैसा महसूस हुआ?" आश्चर्यजनक रूप से, इन सब लोगों ने सहमत रूप से एक ही विशिष्ट परिस्थिति के बारे में बताया। जो यह थी कि मृत्यु के समय पर उन्हें भय नहीं लगा; इसके विपरीत, उन्हें अचानक कुछ प्रकार के आन्तरिक उल्लास के साथ, एक राहत का आभास हुआ। कुछ लोगों को शरीर के बंधन से मुक्ति का एहसास हुआ और वे बहुत हल्केपन से और अद्भुत तरीके से उड़ सकते थे; वे अपने शरीरों को भी देख सकते थे। कुछ लोग दूसरे आयामों के प्राणियों को भी देख सके, और जबकि दूसरे कहीं और चले गए। उन सभी ने ठीक उस पल एक राहत के एहसास का उल्लेख किया, और कुछ प्रकार के आन्तरिक उल्लास का, जिसमें पीड़ा का कोई एहसास नहीं था। यह बताता है कि इस मानव भौतिक शरीर के साथ, व्यक्ति पीड़ा महसूस करेगा, किन्तु क्योंकि हर कोई माँ के गर्भ से इसी प्रकार आता है, कोई नहीं जानता कि यह पीड़ा है।

मैंने बताया है कि व्यक्ति को सबसे कठोर कठिनाइयाँ सहनी चाहिएँ। दूसरे दिन मैंने कहा था मनुष्यजाति के काल-अवकाश की अवधारणा दूसरे, वृहत काल-अवकाश से भिन्न है। यहाँ, एक शचन दो घण्टे है, जो उस अन्तरिक्ष में एक वर्ष है। यदि कोई व्यक्ति इस कठोर परिस्थिति में साधना का अभ्यास करता है, उसे वास्तव में उल्लेखनीय माना जाएगा। जब यह व्यक्ति ताओ के लिए हृदय विकसित कर लेता है और साधना का अभ्यास करना चाहता है, वह वास्तव में महान है। इतनी कठिनाइयों के साथ, उसने अभी भी अपनी मूल प्रकृति को नहीं खोया है और साधना अभ्यास द्वारा अपने मूल की ओर वापस जाना चाहता है। अभ्यासियों की बिना शर्त मदद क्यों की जा सकती है? यह केवल इसीलिए है। जब यह व्यक्ति साधारण लोगों के इस आयाम में एक रात ध्यान में बैठता है, इसे देख कर, दूसरे कहेंगे कि वह व्यक्ति वास्तव में उल्लेखनीय है क्योंकि वह वहाँ छ: वर्ष से बैठा है। यह इसलिए क्योंकि हमारा एक शचन वहाँ के एक वर्ष के बराबर है। हमारी मनुष्यजाति का आयाम बहुत विशिष्ट है।

व्यक्ति सबसे कठोर कठिनाइयाँ कैसे सहता है? उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति काम पर जाता है और कार्यस्थल का हाल-चाल ठीक नहीं चल रहा। यह परिस्थिति और अधिक नहीं चल सकती क्योंकि लोग अपना काम नहीं कर रहे। कार्यस्थल में सुधार किया जाएगा और ठेके के कारीगरों का प्रयोग किया जाएगा। अतिरिक्त कर्मियों की छंटनी की जाएगी, और यह व्यक्ति उनमें से एक है जिसकी रोजी-रोटी अचानक छिन जाती है। उसे कैसा महसूस होगा? आमदनी कमाने के और दूसरे स्थान नहीं हैं। वह अपनी जीविका कैसे चलाएगा? उसके पास कोई और कौशल भी नहीं है, इसलिए वह दु:खी होकर घर वापस जाता है। जैसे ही वह घर पहुँचता है, घर में उसके बुजुर्ग माता-पिता में से एक बीमार है और गंभीर अवस्था में है। चिन्तित होकर, वह जल्द ही बुजुर्ग पिता को किसी अस्पताल में ले जाएगा। अस्पताल में भर्ती के लिए धन उधार लेने के लिए वह बहुत परेशानियों से गुजरेगा। वह तब बुजुर्ग पिता के लिए कुछ खाना बनाने के लिए घर वापस आएगा। जैसे ही वह घर आता है, विद्यालय का शिक्षक द्वार खटखटाता हुआ आएगा : "आपके बच्चे ने लड़ाई-झगड़े में किसी को जख्मी कर दिया है, आप तुरन्त उसे देखने के लिए चलो।" इस परिस्थिति से निपट कर जैसे ही वह घर वापस आता है, जैसे ही वह बैठता है, एक फोन आएगा, जो उसे बताता है : "तुम्हारी पत्नी का किसी के साथ संबंध है।" निश्चित ही, आप इस प्रकार की परिस्थिति से नहीं गुजरेंगे। एक साधारण व्यक्ति इस प्रकार की कठिनाइयों को सहन नहीं कर सकता और सोचेगा : "मैं किस लिए जी रहा हूँ? मैं कोई रस्सी का फंदा लेकर लटक क्यों नहीं जाता और इस सबको समाप्त कर देता?" मैं केवल यह कह रहा हूँ कि व्यक्ति को सबसे कठोर कठिनाइयों को सहने में सक्षम होना चाहिए। नि:संदेह, हो सकता है कि वे इस रूप में न आएँ। तब भी, एक-दूसरे के बीच मतभेद, संघर्ष जो आपके नैतिकगुण को कड़ा करते हैं, और निजी लाभ के लिए प्रतिद्वन्द भी इन समस्याओं से कम सरल नहीं हैं। अनेक लोग केवल अपनी बात सिध्द करने के लिए या चेहरा बचाने के लिए जीते हैं और जब वे परिस्थितियों से और नहीं जूझ पाते आत्महत्या कर लेते हैं। इसलिए हमें इस जटिल वातावरण में साधना का अभ्यास करना चाहिए और सबसे कठोर कठिनाइयाँ सहने में सक्षम होना चाहिए। साथ ही, हमारे पास एक महान धैर्य का हृदय होना चाहिए।

"महान धैर्य का हृदय" क्या होता है? एक अभ्यासी की भांति, जो पहला कार्य आपको करने में सक्षम होना चाहिए वह है कि जब आपको पीटा या भला-बुरा कहा जाता है आपको वापस झगड़ा नहीं करना चाहिए- आपको सहनशील होना चाहिए। अन्यथा, आप किस प्रकार के अभ्यासी होंगे? कोई कहता है : "सहनशील होना वास्तव में कठिन है, और मैं गर्म स्वभाव का हूँ।" यदि आपका स्वभाव अच्छा नहीं है, आपको इसे बदल देना चाहिए, क्योंकि एक अभ्यासी को सहनशील होना चाहिए। कुछ लोग बच्चों को अनुशासित करने में बहुत क्रोधित हो जाते हैं और उन पर चिल्लाते हैं, और हाहाकार मचा देते हैं। आपको बच्चों को अनुशासित करते समय उस प्रकार नहीं होना चाहिए, और न ही आपको स्वयं बहुत नाराज हो जाना चाहिए। आपको बच्चों को तर्क के साथ शिक्षा देनी चाहिए जिससे आप वास्तव में उन्हें अच्छी तरह पढ़ा सकें। यदि आप छोटी-मोटी बातों से भी ऊपर नहीं उठ सकते और आसानी से क्रोधित हो जाते हैं, आप कैसे अपने गोंग को बढ़ाने की आशा रख सकते हैं? कोई कहता है : "यदि कोई मुझे तब ठोकर मारे जब मैं सड़क पर जा रहा हूँ और आसपास कोई मुझे नहीं जानता हो, मैं इसे सहन कर सकता हूँ।" मैं कहूँगा कि यह समुचित नहीं है। हो सकता है भविष्य में आपको चेहरे पर दो बार थप्पड़ मारा जाए, और आपका उसके सामने अपमान हो जिसे आप सबसे कम चाहते हैं कि वह यह देखे। ये यह देखने के लिए है कि आप इस विषय से कैसे निपटते हैं और आप इसे सहन कर पाते हैं या नहीं। यदि आप इसे सहन कर पाते हैं और तब भी यह आपके मन पर छाया रहता है, तब भी यह समुचित नहीं है। जैसा कि आप जानते हैं, जब कोई व्यक्ति अरहत स्तर पर पहुँचता है, उसे अपने हृदय में किसी बात की चिन्ता नहीं होती। वह अपने हृदय में किसी भी साधारण मानवीय विषय के बारे में जरा भी परवाह नहीं करता, और वह सदैव मुस्कुराएगा और अच्छे स्वभाव में रहेगा। भले ही वह कितना भी नुकसान सहे, वह तब भी मुस्कुराएगा और बिना किसी चिन्ता के अच्छे स्वभाव में रहेगा। यदि आप वास्तव में इसे कर सकते हैं, आप पहले ही अरहत की फल पदवी के प्रवेश द्वार पर पहुँच गए हैं।

कोई कहता है, "यदि सहनशीलता का इस सीमा तक अभ्यास किया जाए, साधारण लोग कहेंगे कि हम बहुत डरपोक हैं और हमारा बहुत सरलता से लाभ उठाया जा सकता है।" मैं इसे डरपोक होना नहीं कहता। आप सब यह सोचें : साधारण लोगों के बीच भी, अधेड़ उम्र या वृध्द लोग और जिन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त है वे भी स्वयं-नियन्त्रण का पालन करते हैं और दूसरों के साथ मतभेद से बचते हैं, हमारे अभ्यासियों का उल्लेख आवश्यक नहीं हैं। इसे डरपोक होना कैसे माना जा सकता है? मैं कहूँगा कि यह महान धैर्य को दर्शाता है और दृढ़ संकल्प होने का परिचायक है। केवल एक अभ्यासी के पास महान धैर्य का यह हृदय हो सकता है। एक कहावत है, "जब किसी साधारण व्यक्ति का अपमान होता है, वह लड़ने के लिए अपनी तलवार निकाल लेगा।" एक साधारण व्यक्ति के लिए, यह स्वाभाविक है यदि तुम मुझे अपशब्द कहोगे तो मैं तुम्हें अपशब्द कहूँगा, और यह कि यदि तुम मुझे मारोगे तो मैं भी तुम्हे वापस मारूँगा। वह एक साधारण व्यक्ति है। क्या उसे एक अभ्यासी कहा जा सकता है? एक अभ्यासी की भांति, बिना किसी दृढ़ संकल्प और स्वयं-नियंत्रण के, आप इसे नहीं कर सकेंगे।

आप जानते हैं कि प्राचीन समय में हान शिन5 नाम का एक व्यक्ति था, जो ल्यू बांग6 का प्रमुख सेनापति होते हुए बहुत सक्षम माना जाता था और देश का आधार स्तम्भ था। उसने वे महान उपलब्धियाँ कैसे प्राप्त कीं? यह कहा जाता था कि हान शिन कम उम्र में भी एक असाधारण व्यक्ति था। हान शिन के बारे में एक कहानी है, जिसके अनुसार उसने किसी की टांगों के बीच से निकलने का अपमान सहा। अपनी युवावस्था में हान शिन को युध्द कला के अभ्यास की रुचि थी, और युध्द कला अभ्यासी अक्सर एक तलवार रखते थे। एक दिन जब वह राह पर जा रहा था, एक स्थानीय बदमाश ने उसका रास्ता अपनी कमर पर हाथ रख कर रोका : "तुम यह तलवार क्यों ले जा रहे हो? तुम में किसी को मारने का साहस है? यदि है, तो मेरा सिर काटो।" जैसे वह बात कर रहा था, उसने अपना सिर आगे कर दिया। हान शिन ने सोचा : "मैं तुम्हारा सिर क्यों काटूं ?" उस समय में भी, किसी के वध के बारे में सरकार को सूचना दी जाती थी और उसका भुगतान व्यक्ति को अपने जीवन द्वारा करना पड़ता था। कोई किसी को इच्छानुसार कैसे मार सकता था? जब बदमाश ने देखा कि हान शिन ने उसे मारने का साहस नहीं किया, उसने कहा : "यदि तुम मुझे मारने का साहस नहीं करते, तो तुम मेरी टांगों के बीच से रेंग कर निकलोगे।" हान शिन वास्तव में उसकी दोनों टांगों के बीच से रेंग कर निकला। यह दिखाता है कि हान शिन के पास एक महान धैर्य का हृदय था। क्योंकि वह साधारण लोगों से भिन्न था, वह उन महान उपलब्धियों को पूर्ण कर सका। यह एक साधारण व्यक्ति का ध्येय होता है कि व्यक्ति को अपनी बात सिध्द करने के लिए या चेहरा बचाने के लिए जीना चाहिए। आप सब यह सोचें : अपनी बात को सिध्द करने या चेहरा बचाने के लिए जीना- क्या यह थकावटपूर्ण नहीं है? क्या यह दु:खदायी नहीं है? क्या यह करने योग्य है? हान शिन तब भी एक साधारण व्यक्ति था। अभ्यासियों की भांति, हमें उससे कहीं बेहतर होना चाहिए। हमारा ध्येय साधारण लोगों के स्तर से ऊपर और आगे उठना है और उच्च स्तरों की ओर प्रयत्न करना है। हम उस परिस्थिति से नहीं गुजरेंगे। किन्तु साधारण लोगों के बीच अपमान और परेशानी जो एक अभ्यासी सहता है वे आवश्यक नहीं कि उससे सरल हों। मैं कहूँगा कि एक-दूसरे के बीच संघर्ष जो आपके नैतिकगुण को दृढ़ करते हैं वे किसी भी प्रकार उससे सरल नहीं हैं और उससे बुरे भी हो सकते हैं- यह भी बहुत कठिन हैं।

साथ ही, एक अभ्यासी को त्याग करने, साधारण लोगों के विभिन्न मोहभावों और इच्छाओं को छोड़ने के लिए भी सक्षम होना चाहिए। इसे सब एक साथ कर पाना असंभव है, इसलिए हम इसे क्रमबध्द कर सकते हैं। यदि आप इसे आज कर सकें, आप अभी एक बुध्द होंगे। साधना अभ्यास में समय लगता है, किन्तु आपको ढील नहीं देनी चाहिए। आप कह सकते हैं : "गुरुजी ने कहा है कि साधना अभ्यास में समय लगता है- इसे धीरे-धीरे करते हैं।" यह नहीं चलेगा! आपको अपने साथ दृढ़ होना चाहिए। बुध्द फा की साधना में, आपको तेजी से आगे की ओर बढ़ने का प्रयत्न करना चाहिए।

आपको सद्गुण संरक्षित रखने, अपना नैतिकगुण बनाए रखने, और मनमर्जी वस्तुएँ न करने के लिए भी सक्षम होना चाहिए। आपको बिन परवाह वह सब नहीं करना चाहिए जो आप चाहते हैं, और आपको अपना नैतिकगुण बनाए रखने में सक्षम होना चाहिए। साधारण लोगों के बीच, यह वाक्य अक्सर सुना जाता है : "अच्छे कार्य करने से सद्गुण जमा होता है।" एक अभ्यासी सद्गुण को जमा करने के लिए अभ्यास नहीं करता, क्योंकि हम सद्गुण को संरक्षित करने में विश्वास करते हैं। हम सद्गुण को संरक्षित करने में क्यों विश्वास करते हैं? यह इसलिए क्योंकि हमने इस परिस्थिति को देखा है : सद्गुण को जमा करना वह है जिसमें साधारण लोग विश्वास करते हैं, क्योंकि वे सद्गुण जमा करना और अच्छे कार्य करना चाहते हैं जिससे अगले जन्म में अच्छा जीवन जी सकें। यदि आप साधना अभ्यास में सफल होते हैं, आपको ताओ की प्राप्ति होगी और आपके अगले जीवन का कोई विषय नहीं रहेगा। जब हम यहाँ सद्गुण को संरक्षित करने की बात करते हैं, इसका एक अलग अर्थ है। अर्थात, हमारे शरीरों के ये दो पदार्थ एक जीवनकाल में जमा नहीं होते हैं- वे एक सुदूर काल से जमा होते आ रहे हैं। भले ही आप पूरे नगर में साइकिल चला कर घूमें, हो सकता है आपका सामना करने के लिए किसी अच्छे कार्य से न हो। भले ही आप हर रोज इस प्रकार वस्तुओं को खोजें, हो सकता है आपको ऐसे अवसर न मिलें।

इसका एक और अर्थ भी निकलता है : सद्गुण जमा करने के प्रयत्न में, आप सोच सकते हैं कि अमुक एक अच्छा कार्य है, किन्तु यदि आप इसे करते हैं, हो सकता है यह एक बुरा कार्य निकले। यदि आप किसी ऐसे कार्य में विघ्न डालते हैं जो आप समझते हैं एक बुरी वस्तु है, हो सकता है यह एक अच्छी निकले। क्यों? यह इसलिए क्योंकि आप इसका कर्म संबंध नहीं देख सकते। साधारण लोगों के कार्य-कलापों को कानून नियन्त्रित करते हैं, जो कोई समस्या नहीं है। एक अभ्यासी होना दिव्य है, इसलिए एक दिव्य व्यक्ति की भांति, आपको अपना आचरण दिव्य नियमों के अनुसार करना चाहिए न कि स्वयं को साधारण लोगों के नियमों से मापना चाहिए। यदि आप किसी विषय का कर्म संबंध नहीं जानते, शायद आप इसे अनुचित प्रकार से संभालेंगे। इसलिए, हम वूवेई सिखाते हैं, और आपको कुछ केवल इसलिए नहीं करना चाहिए क्योंकि आप चाहते हैं। कुछ लोग कहते हैं : "मैं केवल बुरे लोगों को अनुशासित करना चाहता हूँ।" मैं कहूँगा कि अच्छा होगा आप एक पुलिस अधीक्षक बन जाएँ। किन्तु हम यह नहीं कह रहे हैं जब आपका सामना किसी हत्या या लूटमार से हो तो आप उन वस्तुओं से दूर रहें। मैं सभी को बता रहा हूँ कि जब पारस्परिक मतभेद होते हैं या जब कोई किसी और को मारता या पीटता है, हो सकता है कि ये लोग अतीत में एक-दूसरे के ऋणि रहे हों, और वे ऋण का भुगतान कर रहे हैं। यदि आप इसे रोकने के लिए कदम बढ़ाते हैं, वे ऋण का भुगतान नहीं कर पाएँगे और उन्हें अगले समय तक दोबारा प्रतीक्षा करनी होगी। इसका अर्थ है कि यदि आप कर्म संबंध नहीं देख सकते, आप सरलता से बुरे कार्य कर सकते हैं और परिणामस्वरूप सद्गुण की हानि कर सकते हैं।

इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता यदि कोई साधारण व्यक्ति साधारण लोगों के कार्य-कलापों में सम्मिलित हो, क्योंकि वह वस्तुओं को मापने के लिए साधारण लोगों के नियमों का प्रयोग करेगा। आपको वस्तुओं को देखने के लिए दिव्य नियमों का प्रयोग करना चाहिए। यदि आप किसी हत्या या लूट-मार को रोकने में मदद नहीं करते जब आप इसे देखते हैं तो यह एक नैतिकगुण विषय है। अन्यथा आप कैसे प्रदर्शित करेंगे कि आप एक अच्छे व्यक्ति हैं? यदि आप किसी हत्या या लूट-मार को रोकने में मदद नहीं करते, आप और किसमें सम्मिलित होंगे? किन्तु यहाँ यह बताना आवश्यक है : इन वस्तुओं का वास्तव में हमारे अभ्यासियों से कोई संबंध नहीं है। हो सकता है वे आपके सामने आने के लिए व्यवस्थित न हों। हम कह चुके हैं कि सद्गुण को संरक्षित करना आपको गलतियाँ करने से बचाता है। हो सकता है यदि आप कुछ करते हैं, आप कोई बुरा कार्य कर दें, और तब आपको सद्गुण की हानि होगी। एक बार सद्गुण की हानि करने पर, आप अपने स्तर में कैसे सुधार कर सकते हैं? आप अपना उच्चतम ध्येय कैसे प्राप्त कर सकते हैं? इसमें यह विषय सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त, व्यक्ति का ज्ञानोदय का गुण अच्छा होना चाहिए। अच्छा जन्मजात गुण व्यक्ति को अच्छा ज्ञानोदय का गुण प्रदान करा सकता है। वातावरण का प्रभाव भी असर डाल सकता है।

हमने यह भी कहा है कि यदि हममें से प्रत्येक अपनी आन्तरिक प्रकृति की साधना करे, बुरे कार्यों के कारणों को देखने के लिए स्वयं अपने नैतिकगुण की जांच करे जिससे अगली बार बेहतर कर सके, और कोई भी कदम उठाने से पहले औरों का ध्यान रखे, मानव समाज बेहतर हो जाएगा और नैतिक आदर्श का दोबारा उदभव होगा। आध्यात्मिक सभ्यता भी बेहतर बनेगी, और सामाजिक सुरक्षा भी। शायद कोई पुलिस भी नहीं होगी। किसी को अनुशासित करने की आवश्यकता नहीं रहेगी, क्योंकि हर कोई स्वयं को अनुशासित करेगा और अपनी आन्तरिक प्रकृति की जांच करेगा। क्या आप नहीं कहेंगे कि यह महान होगा? आप जानते हैं कि कानून और परिपूर्ण और उत्कृष्ट होते जा रहे हैं। किन्तु ऐसे लोग क्यों हैं जो अब भी बुरे कार्य करते हैं? वे कानून का पालन क्यों नहीं करते? यह इसलिए क्योंकि आप उनके हृदयों को शासित नहीं कर सकते। जब उन्हें नहीं देखा जाता, वे तब बुरे कार्य करेंगे। यदि हर कोई आन्तरिक प्रकृति का संवर्धन करता है, तो यह पूरी तरह भिन्न होगा। तब आपके लिए न्याय सुनिश्चित करने की कोई आवश्यकता नहीं होगी।

यह फा केवल इस स्तर तक सिखाया जा सकता है। उसे प्राप्त करना जो उच्च स्तरों पर है आपकी अपनी साधना पर निर्भर है। कुछ लोगों द्वारा उठाए प्रश्न अधिक विशिष्ट हो गए हैं। यदि मैं आपके जीवन में सभी प्रश्नों को समझा देता हूँ, आपको साधना के लिए क्या बचेगा? आपको स्वयं साधना का अभ्यास करना चाहिए और ज्ञानोदय करना चाहिए। यदि मैं आपको सब कुछ बता देता हूँ, आपको साधना के लिए कुछ शेष नहीं बचेगा। सौभाग्यवश, दाफा को सार्वजनिक कर दिया गया है, और आप दाफा के अनुसार वस्तुओं को कर सकते हैं।

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मैं सोचता हूँ कि फा को सिखाने का समय समापन तक पहुँच गया है। इसलिए, मैं हर किसी के लिए सच्ची वस्तुओं को छोड़ कर जाना चाहता हूँ जिससे भविष्य के साधना अभ्यास में सभी के मार्गदर्शन के लिए फा रहे। इस फा को सिखाने के पूरे क्रम के दौरान, मैंने वस्तुओं को हर किसी और समाज के प्रति उत्तारदायी होने के नियम के अनुसार करने का प्रयत्न किया है। वास्तव में, हमने इस नियम का पालन किया है। जहाँ तक परिणाम की बात है, मैं कोई टिप्पणी नहीं करूँगा। यह जनता के जांचने के लिए है। मेरी इच्छा इस दाफा को सार्वजनिक करना तथा हमारे और लोगों को इसका लाभ दिलाना है, जिससे वे लोग सक्षम हो सकें जो फा का अनुसरण करके अपने साधना अभ्यास में आगे बढ़ना चाहते हैं और वास्तव में साधना का अभ्यास करना चाहते हैं। फा को सिखाने के समय ही, हमने मनुष्य होने के नियम भी समझाये हैं, और आशा करते हैं कि कक्षा के बाद यदि आप साधना अभ्यास करने के लिए इस दाफा का पालन न कर सकें, आप कम से कम एक अच्छे व्यक्ति होंगे। इससे हमारे समाज को लाभ होगा। वास्तव में, आप पहले ही जानते हैं कि एक अच्छा व्यक्ति कैसे बने। कक्षा के बाद, आप भी एक अच्छे व्यक्ति होंगे।

फा के सिखाने के क्रम के दौरान, ऐसी वस्तुएँ भी हुईं हैं जो सुगम नहीं रही हैं, और विभिन्न प्रकार के विघ्न बहुतायात में हुए हैं। मेजबान संगठन, विभिन्न व्यावसायों के प्रशासकों, और कर्मचारी सदस्यों के प्रयत्नों द्वारा, हमारी कक्षाएँ बहुत सफल रही हैं।

जो कुछ मैंने अपने व्याख्यानों में बताया है वह हर किसी का उच्च स्तरों की ओर मार्गदर्शन करने के लिए है। अतीत में, किसी ने भी इन वस्तुओं को अपनी शिक्षाओं में नहीं सिखाया। जो हमने सिखाया है वह बहुत स्पष्ट है और इसमें आधुनिक विज्ञान और मानव शरीर के समकालीन विज्ञान को सम्मिलित किया है। इसके अतिरिक्त, जो सिखाया गया है वह एक बहुत ऊँचे स्तर पर है। यह प्राथमिक रूप से भविष्य में हर किसी को वास्तव में फा प्राप्त कराने और साधना अभ्यास द्वारा उत्थान कराने के उद्देश्य से है- मेरी यह इच्छा है। फा और गोंग को सिखाने के क्रम के दौरान, अनेक लोगों ने फा को बहुत अच्छा पाया है, किन्तु अनुसरण करने में बहुत कठिन। वास्तव में, मैं सोचता हूँ यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि यह कठिन है या नहीं। एक साधारण व्यक्ति के लिए जो साधना अभ्यास नहीं करना चाहता, वह साधना अभ्यास को अत्यधिक कठिन, अविश्वसनीय, या असंभव पायेगा। एक साधारण व्यक्ति की भांति, वह साधना का अभ्यास नहीं करना चाहता और उसे बहुत कठिन पायेगा। लाओ ज़ ने कहा था : "जब एक बुध्दिमान व्यक्ति ताओ को सुनता है, यह व्यक्ति इसका परिश्रम के साथ अभ्यास करेगा। जब एक साधारण व्यक्ति इसे सुनता है, यह व्यक्ति इसका कभी-कभार अभ्यास करेगा। जब एक मूर्ख व्यक्ति इसे सुनता है, यह व्यक्ति इस पर जोर से हँसेगा। यदि यह व्यक्ति इस पर जोर से नहीं हँसता है, यह ताओ नहीं है।" एक सच्चे अभ्यासी के लिए, मैं कहूँगा कि यह बहुत सरल है और ऐसा कुछ नहीं है जो अप्राप्य हो। वास्तव में, कई अनुभवी अभ्यासी जो यहाँ बैठे हैं या जो उपस्थित नहीं है पहले ही अपने साधना अभ्यास में बहुत ऊँचे स्तरों पर पहुँच चुके हैं। मैंने आपको ऐसा नहीं बताया था, जिससे आपको कोई मोहभाव उत्पन्न न हो या आप शिथिल न पड़ जाएँ। वह आपके गोंग सामर्थ्य के विकास को प्रभावित कर सकता था। एक सच्चे दृढ़ निश्चयी अभ्यासी की भांति, व्यक्ति सब कुछ सह सकता है और विभिन्न निजी लाभों के सामने कोई भी मोहभाव छोड़ सकता है या उसकी कम परवाह कर सकता है। जब तक वह इसे कर सकता है, यह कठिन नहीं होगा। वे लोग इसे कठिन पाते हैं जो उन वस्तुओं को नहीं छोड़ सकते। साधना अभ्यास स्वयं कठिन नहीं है, और न ही अपने स्तर में सुधार करना स्वयं में कठिन है। यह इसलिए क्योंकि वे मानव मन को नहीं छोड़ पाते वे इसे कठिन कहते हैं। यह इसलिए क्योंकि व्यावहारिक लाभ के सामने किसी वस्तु को छोड़ना बहुत कठिन होता है। लाभ यहाँ सामने हैं, इसलिए आप इन मोहभावों को कैसे छोड़ सकते हैं? यह वास्तव में इस कारण है कि व्यक्ति इसे कठिन पाता है। जब कोई पारस्परिक मतभेद होता है, यदि आप इससे निपटने में धैर्य का अभ्यास नहीं कर पाते या स्वयं को एक अभ्यासी नहीं मान पाते, मैं कहूँगा कि यह अस्वीकार्य है। जब विगत में मैं साधना का अभ्यास करता था, अनेक महान गुरुओं ने मुझे ये शब्द बताये, और उन्होंने कहा : "जब इसे सहन करना कठिन हो, आप इसे सहन कर सकते हैं। जब इसे करना असंभव हो, आप इसे कर सकते हैं।" वास्तव में, यह इसी प्रकार है। जब आप घर वापस पहुँचेंगे आप इसे एक बार करने का प्रयत्न क्यों नहीं करते। जब आप किसी वास्तविक कठिनाई या विपत्ति से जूझ रहे हों, आप इसका प्रयत्न करें। जब इसे सहन करना कठिन हो, सहन करने का प्रयत्न करें। जब यह असंभव दिखाई पड़ता है और असंभव कहा जाता है, प्रयत्न करें और देखें कि क्या यह संभव है। यदि आप वास्तव में इसे कर सकते हैं, आप वास्तव में पाएंगे : "सरकण्डे के अन्धकारमय पेड़ों से गुजर कर, उज्जवल पुष्प आएंगे और आगे एक और गांव पड़ेगा!"

क्योंकि मैं इतना अधिक बोल चुका हूँ, हर किसी के लिए बतायी गयी इतनी सारी वस्तुओं को याद रखना बहुत कठिन होगा। मैं मुख्यत: कुछ आवश्यकताएँ रखूँगा : मैं आशा करता हूँ कि आपमें से हर कोई भविष्य के साधना अभ्यास में स्वयं को एक अभ्यासी मानेगा और सच्चे रूप से अपने साधना अभ्यास को निरन्तर रखेगा। मैं आशा करता हूँ कि अनुभवी और नए अभ्यासी दोनों दाफा में साधना का अभ्यास कर सकेंगे और इसमें सफल हो सकेंगे! मैं आशा करता हूँ कि घर जाने के बाद हर कोई सच्चे साधना अभ्यास के लिए अपने समय का सदुपयोग करेगा।


1 भौतिकवाद — एक दार्शनिक सिध्दान्त जो मानता है कि भौतिक पदार्थ का अपनी क्रियाओं और गतियों सहित केवल एक मात्र सत्य है।
2 गोंग-शरीर (गोंगशन) — गोंग से बना शरीर।
3 शनश्यो — तांग राजवंश में जेन बुध्दमत की उत्तारी विचारधारा के संस्थापक।
4 तांगशान — हेबेई प्रान्त का एक नगर।
5 हान शिन — ल्यू बांग का एक प्रमुख सेनापति।
6 ल्यू बांग — हान राजवंश का संस्थापक और शासक (206 बी.सी.- 23 ए.डी.)।